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________________ तृष्णा की जड़ को बुद्ध ने निर्वाण कहा। तुम रिक्त हो जाओ, शून्य हो जाओ। तुम बीच में न आओ, तो निर्वाण है। निर्वाण महासुख है। ये सारे सूत्र तृष्णा के ऊपर हैं। इसके पहले कि हम सूत्रों में उतरें, उन परिस्थितियों में चलें, जब ये सूत्र कहे गए। पहला दृश्यः । भगवान गौतम बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन में विहरते थे। श्रावस्ती के नगर-द्वार पर बसे हुए केवट्ट गांव के मल्लाहों ने अचिरवती नदी में जाल फेंककर एक स्वर्ण-वर्ण की अदभुत मछली को पकड़ा। ___ अदभुत थी मछली। स्वर्ण-वर्ण था उसका, जैसे सोने की बनी हो। उसके शरीर का रंग तो स्वर्ण जैसा था, किंतु उसके मुख से भयंकर दुर्गंध निकलती थी। मल्लाहों ने इस चमत्कार को जाकर श्रावस्ती के महाराजा को दिखाया। ऐसी मछली कभी उन्होंने पकड़ी नहीं थी। ऐसी सुंदर काया कभी देखी नहीं थी किसी मछली की। जैसे स्वर्ग से उतरी हो। और साथ ही एक दुर्भाग्य भी जुड़ा था उस मछली के पीछे। उसके मुंह से ऐसी भयंकर दुर्गंध निकलती थी, वैसी दुर्गंध भी कभी नहीं देखी थी; जैसे भीतर नर्क भरा हो। बाहर स्वर्ण की देह थी और भीतर जैसे नर्क! • राजा भी चकित हुआ। न उसने सुना था कभी, न देखा था। ऐसी मछली पुराणों में भी नहीं लिखी थी। बुद्ध गांव में ठहरे हैं। राजा उस मछली को एक द्रोणी में रखवाकर भगवान के पास ले गया। सोचा चलें, उनसे पूछे। शायद कुछ राज मिले। उस समय मछली ने मुख खोला, जिससे सारा जेतवन दुर्गंध से भर गया। जहां बुद्ध ठहरे थे-जिन वृक्षों की छाया में वह सारा जेतवन दुर्गंध से भर गया! ऐसी भयंकर उसकी दुर्गंध थी। राजा ने भगवान के चरणों में तीन बार प्रणाम कर पूछाः भंते! क्यों इसका शरीर स्वर्ण जैसा, किंतु मुख से दुर्गंध निकलती है? यह द्वंद्व कैसा? यह द्वैत कैसा? स्वर्ण की देह से तो सुगंध निकलनी थी! और अगर दुर्गंध ही निकलनी थी, तो देह स्वर्ण की नहीं होनी थी। यह कैसा अजूबा! आप कुछ कहें। भगवान ने अत्यंत करुणा से उस मछली की ओर देखा और बड़ी देर चुप रहे। जैसे किसी और लोक में खो गए। और फिर बोलेः महाराज! यह मछली कोई सामान्य मछली नहीं है। इसके पीछे छिपा एक लंबा इतिहास है। यह काश्यप बुद्ध के शासन में कपिल नामक एक महापंडित भिक्षु था। यह त्रिपिटकधर था; ज्ञानी था। बड़ा तर्कनिष्ठ, बड़ा तर्क कुशल; स्मृति इसकी बड़ी प्रगाढ़ थी। और उतना ही अभिमानी भी था। अहंकार भी बड़ा तीक्ष्ण था; तलवार की धार की तरह था। इसने अपने अभिमान में भगवान काश्यप को धोखा दिया; अपने गुरु को धोखा दिया।
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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