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एस धम्मो सनंतनो
आत्यंतिक अर्थ यही है कि तुम्हें जितनी स्वतंत्रता दी जा सके, दी जाए।
स्वतंत्रता में निश्चित ही गिरने की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है। ऐसी तो कोई स्वतंत्रता हो ही नहीं सकती, जिसमें हम कहें कि ऊपर चढ़ो तो स्वतंत्र, गिरो तो स्वतंत्र नहीं! स्वतंत्रता तो दोनों की होती है - शुभ की, अशुभ की।
और बुद्ध ने परिपूर्ण स्वतंत्रता दी थी अपने भिक्षुओं को। वे अपूर्व सदगुरु थे। वे देखते रहे। देखते रहे, कई कारणों से। एक तो हर छोटी-छोटी बात में बाधा देनी उचित नहीं है । और हर छोटी-छोटी बात में बाधा दी जाए, तो व्यक्ति का विकास रुकता है। उसे सोचने दो। उसे चिंतन करने दो। उसे गुजरने दो परेशानियों से; उसे चुनौतियों का सामना करने दो।
जैसे मां देखती रहती है अपने बच्चे को— कि वह चल रहा है; खड़ा हो रहा है । एक नजर से ध्यान रखती है। अपने काम में भी लगी रहती है। ऐसा भी ज्यादा ध्यान नहीं देती कि बच्चे को ऐसा लगे कि मां चौबीस घंटे उसके पीछे पड़ी है। पर देखती रहती है चुपचाप : कहीं गिर न जाए; कहीं आंगन से नीचे न उतर जाए; कहीं सड़क पर न चला जाए; कहीं आग के पास न पहुंच जाए; कुछ खतरा न हो जाए। और तब तक देखती रहती है, जब तक कि खतरा हो ही न जाए, होने के ही करीब न पहुंच जाए। अन्यथा चुपचाप रहती है, चलने-फिरने देती है। नहीं तो बच्चा चलेगा कैसे ? खड़ा कैसे होगा? जीवन के योग्य कैसे बनेगा ?
ऐसा ही सदगुरु है ।
बुद्ध देखते रहे। सब पता है, क्या हो रहा है। इस युवक के मन में कैसी चिंताएं चल रही हैं; कैसे-कैसे प्रलोभन इसे पकड़ रहे हैं। यह पिंजड़े में जाने को किस तरह आतुर हुआ जा रहा है। लेकिन बुद्ध इस आशा में रुके हैं कि यह अपने से रुक जाए, तो महाशुभ है। क्योंकि जब तुम अपने से रुकते हो, तब तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित होती है। जब कोई तुम्हें रोक लेता है, तो क्रांति नहीं घटित होती ।
जब तुम अपने से रुकते हो, तो तुम्हारा बोध बढ़ता है। जब तुम अपने से एक भूल से बचते हो, तो तुम्हारे जीवन में ऊंचाई आती है; तुम पहाड़ थोड़ा और ऊपर चढ़ गए। जब कोई दूसरा तुम्हारे हाथ को पकड़कर, सहारा देकर, ऊंचा चढ़ा देता है — ऊंचाई पर तो पहुंच जाते हो, लेकिन यह ऊंचाई उधार होती है। और सदगुरु नहीं चाहता कि शिष्यों की ऊंचाई उधार हो ।
बुद्ध ने कहा है : बुद्धपुरुष तो केवल इशारा करते हैं, चलना तो तुम्हीं को पड़ता है । इसलिए जब मजबूरी हो जाती है, तभी, अत्यंत विवश अवस्था में सदगुरु टोकता है । फिर भी टोकना टोकने जैसा नहीं होता ।
बुद्ध ने उससे यह नहीं कहा कि तू ऐसा मत कर। कोई आदेश नहीं दिया। आज्ञा नहीं दी कि पाप में पड़ेगा; नर्क जाएगा। ऐसा मत कर। उसे भयभीत भी नहीं किया। सिर्फ होश सम्हालने के लिए थोड़ी सी चेतावनी दी — कि थोड़ा जाग। फिर जागकर
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