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________________ बोध से मार पर विजय तुम जहां हो, वहां सुख नहीं है। और जो व्यक्ति सुख चाहता है, उसे वहीं सुखी होना पड़ता है जहां है। संन्यास की यही अर्थवत्ता है। संन्यास का अर्थ है : इस क्षण सुखी; जैसे हैं, उसमें सुखी। जहां हैं, वहां सुखी। अन्यथा की मांग का न होना ही तृष्णा का विसर्जन है। __इसलिए संन्यासी में एक अपूर्व शुद्धता झलकने लगती है। उसकी आंखों में एक शांति झलकने लगती है। उसके पास भी बैठोगे, तो उसकी शांति तुम्हें छुएगी। उसकी शांति तुम से दुलार करेगी। उसकी शांति तुम्हारे आसपास बहेगी। यह स्त्री इस संन्यासी के मोह में पड़ गयी। उसे सब तरह के प्रलोभन देने लगी। धन था उसके पास; पद था उसके पास; महल था उसके पास। वह कहती होगी कि तुम्हें मैं इतना प्रेम करती; तुम्हारे पैर दबाऊंगी। तुम मेरे मालिक, तुम मेरे स्वामी। तुम क्यों भीख मांगो! क्यों नंगे पैर रास्तों पर भटको! यह महल तुम्हारा; यह सब तुम्हारा। तुम यहां आ जाओ। जैसे कोई पक्षी को-खुले आकाश के पक्षी को-कहे कि इस पिंजड़े में सब सुविधा है। यहां कभी भूखे न मरोगे। रोज-रोज खोजने भोजन को जाना न पड़ेगा। और फिर देखते हो, सोने का पिंजड़ा है! फिर देखते हो, इस पर हीरे-जवाहरात जड़े हैं! ऐसा पिंजड़ा दुनिया में दूसरा नहीं। तुम आ जाओ भीतर। मुझे द्वार बंद कर देने दो। एक बार तुम इसमें आ गए, तुम सदा निश्चित रहोगे। सुरक्षित रहोगे। इस पिंजड़े का बीमा कराया हुआ है! ___ और शायद पक्षियों में भी आदमी जैसी बुद्धि होती, तो वे भी स्वीकार कर लेते। वे अपने से स्वीकार नहीं करते। जबर्दस्ती उन्हें पिंजड़े में बंद कर दो, एक बात। लेकिन आदमी बुद्धिमान है! आदमी सोचता हजार बातें। इस युवक ने सोचा होगा : आज तो जवान हूं, तो भीख मांग लेता हूं। कल बूढ़ा हो जाऊंगा, फिर? खैर, बुद्ध बूढ़े हो गए हैं, इनको अभी भी भीख मिल जाती है। ये राजपुत्र हैं। मैं कोई राजपुत्र तो हूं नहीं। फिर बुद्ध महिमाशाली हैं; इनके वचनों में अमृत है। मैं तो साधारणजन हूं। फिर आज तो बुद्ध हैं, तो इनके पीछे छाया की तरह चलता हूं। सुख है, सुविधा है। सब ठीक हो जाता है। कल बुद्ध मर जाएंगे, फिर? ऐसी हजार चिंताएं-जैसे तुम्हें पकड़ती हैं-उसे पकड़ी होंगी। हजार विचार उसे आए होंगे: कभी बीमार होऊंगा, कभी बूढ़ा होऊंगा, फिर कौन मेरी चिंता करेगा? फिर कौन मुझे भोजन देगा? कौन मेरे पैर दबाएगा? यह सुंदर प्यारी स्त्री सब समर्पित करने को राजी है। इसका समर्पण तो देखो! इसका त्याग तो देखो! इसका प्रेम तो देखो! ऐसे बहुत-बहुत प्रलोभन उसके मन में पड़े होंगे। और बहुत तरंगें उसके मन में उठी होंगी। बुद्ध चुपचाप देखते रहे थे। सदगुरु तभी रोकता है, जब तुम अपने से न रुक पाओ। जब तक तुम अपने से रुक सकते हो, सदगुरु न रोकेगा। क्योंकि सदगुरु का 145
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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