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________________ एस धम्मो सनंतनो करें। हम अंधों के लिए आपके जुड़े हाथ देखकर मुझे कष्ट होता है। सं बोधि ने पूछा है यह प्रश्न | यह कष्ट शुभ है। यह आंख के खुलने की शुरुआत है । इतना भी तुम्हें दिखायी पड़ने लगा कि तुम अंधे हो, तो काफी दिखायी पड़ने लगा ! जिसको यह दिखायी पड़ने लगा कि मैं अंधा हूं, उसकी आंख खुलने लगी। कहते हैं: जब पागल को यह समझ में आना शुरू हो जाए कि मैं पागल हूं, तो वह ठीक होने लगा। पागल को समझ में आता ही नहीं कि मैं पागल हूं। तुम किसी पागल को पागल कहो, वह तुम्हें पागल सिद्ध करेगा। वह कहेगा : मैं और पागल ? तुम पागल हो। मुझे जो पागल कहता है, वह पागल है। पागल अपने को पागल नहीं मानता। पागलपन में इतनी बुद्धिमत्ता हो भी कैसे सकती है कि अपने को पागल मान ले ! जिस दिन पागल मानने लगता है कि मैं पागल हूं; बुद्धिमत्ता की पहली किरण उतरी। जिस दिन तुम जानते हो कि मैं अज्ञानी हूं, ज्ञान का पहला प्रकाश उतरा। शुभ है संबोधि कि इससे पीड़ा होती है। यह पीड़ा अच्छी है। यह पीड़ा हितकर है; कल्याणदायी है। और तुम पूछती हो कि हम अंधों के लिए आपके हाथ जुड़ें – यह ठीक नहीं । अंधे हो नहीं, सिर्फ आंख बंद किए बैठे हो। तुम में और बुद्धों में जो अंतर है, वह ऐसा नहीं है कि बुद्ध के पास आंख है और तुम्हारे पास आंख नहीं है। आंख तुम्हारे पास उतनी ही है, जितनी बुद्ध के पास है । लेकिन बुद्ध खोले हैं अपनी आंख; तुम बंद किए हो । हालांकि मूर्ति में उलटा दिखायी पड़ता है: बुद्ध की आंख बंद है और तुम्हारी खुली है । बुद्ध की आंख बाहर से बंद है, इसलिए भीतर खुली है। तुम्हारी आंख बाहर खुली है, इसलिए भीतर से बंद है। और भीतर खुले, तो ही खुले । भीतर खुलना ही असली खुलना है। तुम अपने को देखने लगो, तो आंख वाले हुए। तुम देख तो रहे हो, औरों को देख रहे हो । अपने को नहीं देख रहे । जिस दिन अपने को देखने लगोगे, उसी दिन आंख खुल गयी। तुम अंधे नहीं हो। अंधे का तो मतलब यह होता है : आंख खुल ही नहीं सकती। अंधे का तो मतलब होता है : आंख है ही नहीं; तो खुलेगी कैसे! अंधा मत मान लेना अपने को । कहीं यह मन की तरकीब न बन जाए। मन यह कहने लगे कि तुम तो अंधे हो; यह हो ही नहीं सकता। बात खतम हो गयी। तो जैसे जी रहे हो, जीए जाओ। नहीं; तुम अंधे नहीं हो। सिर्फ तुम्हारी आंख गलत तरफ खुली है, इसलिए ठीक 130
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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