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________________ एस धम्मो सनंतनो जो मैं तुझे मस्जिद ले गया। तेरी तो नमाज हुई नहीं, मेरी नमाज खराब हो गयी। तू घर जा भाई! और मैं फिर वापस मस्जिद जाकर नमाज करूं। वह युवक कहने लगा ः क्यों? तो मोहम्मद ने कहा कि तू न आता, वही अच्छा था। कम से कम दूसरों को पापी तो न समझता था। कम से कम यह पुण्यात्मा होने का दंभ तो तुझ में नहीं था। यह तो बड़ी गलती मुझसे हो गयी। मुझे क्षमा कर। अब ऐसी भूल दुबारा न करूंगा। अब भूलकर तुझ से न कहूंगा कि मस्जिद चल। तू घर जा; बिस्तर पर सो जा। मुझे जाने दे मस्जिद; मैं फिर नमाज करके आ जाऊं। और क्षमा मांग लूं परमात्मा से कि मुझसे बड़ी भूल हो गयी। तुम से मैं क्षमा मांगू या क्या करूं! बड़ी गलती हो गयी, जो तुम्हें ध्यान में लगाया; कि कीर्तन में रस लेने को कहा। इसलिए नहीं कहा था कि जीवन भद्दा हो जाए। खयाल करना। जब तुम सोचोगे कि दुकान पर बैठना भद्दा है, तो बाकी सब दुकानदार पापी हो गए। जब तुम सोचोगे कि दुकान पर बैठना भद्दा है, तो उसका मतलब हुआ कि तुम्हारा अहंकार बड़ा धार्मिक रूप ले रहा है। बड़ी भयंकर बात हो रही है! अहंकार का सांसारिक रूप तो स्थूल होता है, धार्मिक रूप बहुत सूक्ष्म होता है। तुम्हारे पास धन है बहुत; यह अहंकार बहुत स्थूल है। यह तो बुद्ध को भी दिखायी पड़ जाता है। लेकिन तुमने त्याग कर दिया धन का, यह अहंकार बड़ा सूक्ष्म है। यह तो बुद्धिमानों को भी दिखायी नहीं पड़ता। तुमने इतने उपवास कर लिए, इतने व्रत कर लिए; एक अकड़ भीतर होने लगती है। और अकड़ ही तो मारे डाल रही है। अकड़ ही संसार है। अब तुम कहते हो : 'ध्यान, प्रवचन और कीर्तन-और फिर काम-धंधा! बहुत भद्दा लगता है! कैसे करते रहें?' ___अगर छोड़ना ही हो तो प्रवचन, कीर्तन और भजन छोड़ दो। धंधा मत छोड़ना। मेरी सारी चेष्टा यहां यही है कि तुम्हें जीवन में परमात्मा का अनुभव हो। तुम्हें जीवन की सामान्य स्थितियों में परम के दर्शन हों। तुम्हें ग्राहक में दिखायी पड़े। ___मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम जैसे तराजू मारते रहे पहले, वैसे ही मारते रहना। मैं यह कह रहा हूं : तुम्हें ग्राहक में परमात्मा दिखायी पड़े। तुम सेवा कर रहे हो उसकी। अगर तुम्हारा ध्यान और कीर्तन और भजन ठीक जा रहा है, तो तुम्हारा तराजू मारना बंद हो जाएगा। तुम्हारा ध्यान, प्रवचन, कीर्तन ठीक जा रहा है, तो ग्राहक को भी तुम ऐसे नहीं देखोगे कि मछली फंसी। तुम ग्राहक में भी परमात्मा देखोगे। तुम ग्राहक को धोखा नहीं दोगे। जरूर तुम्हें भी दो पैसे चाहिए जीने के लिए, तो तुम कहोगे कि चार आने की चीज है, और दो पैसे मुझे भी चाहिए। तुम लूटोगे नहीं। तुम्हारी लूटने की वृत्ति नहीं होगी। 122
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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