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एस धम्मो सनंतनो
चीन में बोधिधर्म नौ वर्ष तक दीवाल की तरफ मुंह किए बैठा रहा। लोग आते थे, तो उनकी तरफ देखता नहीं था। पीठ ही किए रहता था। लोग पूछते भी कि बहुत भिक्षु हमने देखे; बहुत संत देखे; मगर आप हमारी तरफ पीठ क्यों किए हैं? तो बोधिधर्म कहता ः जो मेरी आंखों में पड़ने के योग्य होगा, जब उसका आगमन होगा, तब देखूगा। अभी देखने से कुछ सार नहीं है। अभी तो दीवाल देखू कि तुम्हें देखू, सब बराबर है। दीवाल ही है चारों तरफ। तुम भी दीवाल हो!
नौ वर्ष बाद वह व्यक्ति आया, जिसकी प्रतीक्षा बोधिधर्म ने की थी। बोधिधर्म को भी महाकाश्यप मिला; जैसे बुद्ध को महाकाश्यप मिला था। उस व्यक्ति ने आकर अपना एक हाथ तलवार से काटकर बोधिधर्म को भेंट किया और कहा: जल्दी से इस तरफ मुंह करो अन्यथा गरदन भी भेंट कर दूंगा! फिर क्षणभर बोधिधर्म नहीं रुका। जल्दी से घूमा। वह नौ साल जो दीवाल को देखता रहा था, वह घूमा
और उसने कहा कि तो तुम आ गए! मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में था। क्योंकि जो सब देने को तैयार हो, गरदन देने को तैयार हो, वही मेरे संदेश को झेल सकता है।
इस व्यक्ति को बोधिधर्म ने अपना संदेश दे दिया, जो बुद्ध ने महाकाश्यप को दिया था। वह क्या है संदेश? शब्द में कहने का उपाय नहीं।
यह नौ वर्ष तक दीवाल का साक्षी रहा था। बुद्ध तो थोड़ी देर फूल के साक्षी रहे थे। बोधिधर्म नौ वर्ष तक दीवाल को देखता रहा था। यह नौ वर्ष का साक्षीभाव था, जो उसने इस व्यक्ति को दे दिया।
फिर यह व्यक्ति गुरु हुआ। बोधिधर्म वापस लौट गया चीन से भारत की तरफ। भारत कभी पहुंचा नहीं। कहीं हिमालय में खो गया होगा। और खो जाने को बेहतर जगह है भी नहीं।
फिर यह व्यक्ति, जिसको बोधिधर्म दे आया था, बूढ़ा हुआ; और इसे भी अपने शिष्य की तलाश थी। इसके आश्रम में पांच सौ भिक्षु थे। इसने एक दिन खबर की कि अब मुझे शिष्य की तलाश है। जो भी सोचता हो कि योग्य हो गया है, वह मेरे द्वार पर आकर लिख जाए धर्म का सार चार पंक्तियों में।
जो सबसे बड़ा पंडित था, महापंडित था, स्वभावतः उसी ने हिम्मत की। उसी ने बड़े डरते-डरते हिम्मत की। क्योंकि वे जानते थे अपने गुरु को कि उसे धोखा नहीं दिया जा सकता। औरों ने तो हिम्मत ही नहीं की, विचार ही नहीं किया। लेकिन एक ने हिम्मत की, जो सबसे बड़ा पंडित था, जिसे शास्त्र कंठस्थ थे। वह रात चोरी से गया; वह भी दिन में नहीं; रात जाकर गुरु के द्वार पर चार पंक्तियां लिख आया। उसने पंक्तियां लिखी थीं कि
मन दर्पण की भांति है इस पर विचारों-विकारों की धूल जम जाती है उस विचार-विकार की धूल को पोंछ दें
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