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________________ एस धम्मो सनंतनो खिलता है, सांझ मुझ जाता है। सुबह ऐसे प्रगट होता है, जैसे सदा रहेगा; और सांझ ऐसे खो जाता है, जैसे कभी नहीं था। ऐसा ही तो जीवन है। जब होता है, तो ऐसा भरोसा लगता है कि सदा रहेंगे। प्रत्येक को यही भ्रांति है। जब तुम दूसरे को मरते देखते हो, तब भी यह खयाल कहां आता कि मैं भी मरूंगा! जब तुम दूसरे की लाश को चिता पर चढ़े देखते हो, तो सोचते हो : बेचारा! उस पर दया खाते हो; अपने पर दया नहीं खाते। जब भी चिता जलती है, तुम्हारी ही चिता जलती है। और जब भी मौत रास्ते से गुजरती है, तुम्हारी ही मौत गुजरती है। कभी पूछने मत भेजना कि किसकी लाश निकली! हर बार तुम्हारी ही लाश निकलती है। लेकिन आदमी इस भ्रांति में रहता है कि मैं तो रहूंगा। सदा दूसरे मरते हैं; मैं कहां मरता हूं! और इस तर्क में थोड़ा बल भी मालूम होता है। क्योंकि कभी अमरा, कभी ब मरा, कभी स मरा; तुम तो नहीं मरे। तुम तो अपनी मृत्यु को नहीं देख पाओगे, इसलिए तुमने तो सिर्फ अपना जीवन ही देखा। मरे तो तुम भी हो, बहुत बार मरे हो, पर मृत्यु देखने के पहले ही व्यक्ति मूछित हो जाता है। मृत्यु के भय से मूछित हो जाता है। मृत्यु को जो देखने में समर्थ हो जाता है, वह तो मुक्त हो गया; फिर उसका कोई जन्म नहीं। जो मृत्यु में शांति से, जागरूकता से, समाधिपूर्वक लीन हो गया, फिर लौटकर नहीं आता। उसे तो जीवन का राज ही समझ में आ गया। तो बुद्ध ने कहा है : सारा जीवन क्षणभंगुर है। जैसे नदी बह रही है, ऐसा जीवन बह रहा है। सब चीजें बदल रही हैं। बच्चे जवान हो रहे हैं; जवान बूढ़े हो रहे हैं; बूढ़े मर रहे हैं। सब चीज सतत धारा की तरह बह रही है। फूल उसका बड़ा उपयुक्त प्रतीक है। लेकिन इस सारी क्षणभंगुरता के पीछे, इस सारी क्षणभंगुरता के पार, कुछ है जो शाश्वत है। उसी को बुद्ध ने कहा ः एस धम्मो सनंतनो। धर्म शाश्वत है; शेष सब मरता है; शेष सब विनष्ट होता है। बुद्ध जिसे धर्म कहते हैं, उसे ही लाओत्सू ने ताओ कहा। बुद्ध जिसे धर्म कहते हैं, उसी को महावीर ने आत्मा कहा। बुद्ध जिसे धर्म कहते हैं, उसी को हिंदू, मुसलमान, ईसाई परमात्मा कहते हैं। ये अलग-अलग नाम हैं। क्षणभंगुर तभी हो सकता है, जब सबकी पृष्ठभूमि में कुछ शाश्वत हो। बैलगाड़ी चलती है, चाक घूमता है; लेकिन कील नहीं घूमती, जिस पर चाक घूमता है। अगर कील भी घूम जाए, तो फिर चाक वहीं गिर जाए; फिर चाक नहीं घूम पाए। चाक के घूमने के लिए एक कील चाहिए, जो न घूमती हो। परिवर्तन के लिए कुछ नित्य चाहिए, जिस पर परिवर्तन टंगा रहे। नहीं तो परिवर्तन किस पर टंगेगा! बचपन था, जवानी आयी, बुढ़ापा आया। जीवन था, मौत आयी। तुम्ही बच्चे 104
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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