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________________ एस धम्मो सनंतनो दिया। बुद्ध को देखने के लिए ऊपर देखना पड़ेगा, चांद-तारों की तरफ देखना पड़ेगा। जब मंसूर को सूली हुई, वह खिलखिलाकर हंसने लगा। और किसी ने भीड़ में से पूछा कि मंसूर! तुम्हारे हंसने का कारण? क्योंकि तुम मर रहे हो! ऊंचे खंभे पर उसे सूली लगायी जा रही थी। मंसूर ने कहा कि मैं इसलिए खुश हूं कि एक लाख आदमी मुझे देखने इकट्ठे हुए हैं। और एक लाख आदमियों की आंखें पहली दफे थोड़ी ऊपर उठीं, क्योंकि मुझे देखने के लिए इस ऊंचे खंभे की तरफ देखना पड़ रहा है। यही क्या कम है कि तुम्हारी आंखें जमीन में गड़ी-गड़ी रही हैं सदा, आज चलो मेरे बहाने ऊपर उठीं! और हो सकता है कि मुझे देखकर तुम्हें परमात्मा की थोड़ी याद आए! और मेरे आनंद को देखकर तुम्हें याद आए कि परमात्मा जिसके साथ हो जाता है, वह मरने में भी खुश है। और परमात्मा जिसके साथ नहीं, वह जीवन में भी दुखी है। यह तुम भूल न सकोगे। तुम्हें मेरी मुस्कुराहट याद रहेगी; कभी-कभी तुम्हें चौंकाएगी। कभी-कभी तुम्हारे सपनों में उतर आएगी। कभी-कभी शांत बैठे क्षणों में मेरी तस्वीर तुम्हें फिर-फिर याद आएगी। चलो, यही क्या कम है! मेरा इतना ही उपयोग हो गया! मरना तो सभी को पड़ता है। एक लाख आदमियों के दिल में मेरी तस्वीर टंगी रह जाएगी। शायद उन्हें परमात्मा की याद दिलाएगी। __जब तुम बुद्ध के प्रेम में पड़ते हो, तो धीरे-धीरे तुम में बुद्धत्व छाने लगता है। इसलिए साधु-संग की बड़ी महिमा है। उसका मतलब इतना है कि उनके प्रेम में पड़ जाना, जो तुम से आगे गए हैं। जो तुम से दो कदम भी आगे हैं, उनके प्रेम में पड़ जाना। कम से कम दो कदम तो तुम्हें आगे जाने में सहायता मिल जाएगी। अपने से पीछे लोगों के प्रेम में मत पड़ना, नहीं तो तुम गिरोगे। वह उनके साथ घूमते-घूमते थोड़े ही वर्षों में नट-विद्या में निपुण हो गया। और तो सीखता भी क्या! नट से प्रेम करोगे, नट हो जाओगे। नट हो गया। फिर एक उत्सव में भाग लेने वह भी राजगृह आया। लोक-लाज भी खो दी होगी। संकोच भी खो दिया होगा। यह भी फिकर न की कि उस गांव में मेरा पिता सब से बड़ा धनी है, प्रतिष्ठित है। राजा के बाद उसी का नंबर है। उस गांव में मैं मदारियों के खेल दिखाऊंगा—यह उचित है? लेकिन एक समय आता है, जब तुम धीरे-धीरे बेशर्मी में भी ठहर जाते हो। वह भी जड़ हो जाता है। शर्म भी नहीं उठती; लज्जा भी नहीं उठती! उसका खेल देखने स्वभावतः हजारों लोग इकट्ठे हुए। खेल से ज्यादा तो उसको देखने इकट्ठे हुए–कि यह भी कैसा दुर्भाग्य! इतनी बड़ी संपत्ति, इतनी सुविधा, इतने संस्कार, इतनी सभ्यता में पैदा हुआ आदमी और इस तरह गिरेगा! __उस दिन जब भगवान भिक्षाटन को निकले, तो श्रेष्ठीपुत्र उग्गसेन साठ हाथ ऊंचे दो भवनों के बीच में बंधी रस्सी पर चलकर अपना खेल दिखाना शुरू करने 96
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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