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एस धम्मो सनंतनो
होगा? अब मन रंगाओ। तुमने अभी कपड़ा भी नहीं रंगाया; तुम अभी जोगी नहीं हो, कबीर का वचन तुम्हारे लिए नहीं है। जिन्होंने कपड़ा रंगा लिया, उनसे मैं भी कहता हूं-मन न रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा! मगर तुमसे न कहूंगा। तुमसे तो कहूंगा–पहले जोगी तो बनो, कम से कम कपड़ा तो रंगाओ। एक बार कपड़ा रंग जाए, इतनी हिम्मत तो करो! और तुम कहते हो कि बाहर के कपड़े से क्या होगा!
बाहर और भीतर में जोड़ है। संयोग और सत्य भी जुड़े हैं। जो बाहर है, एकदम बाहर थोड़े ही है, वह भी भीतर का ही फैलाव है। तुम भोजन तो करते न! तो बाहर से ही भोजन लेते हो, वह भीतर पहुंच जाता है। तुम यह तो नहीं कहते, बाहर का भोजन क्या करना? बाहर का जल क्या पीना? भीतर प्यास है, बाहर के जल से क्या होगा? ऐसा तो नहीं कहते। या कहते हो! भीतर की प्यास बाहर के जल से बुझ जाती है, और भीतर की भूख बाहर के भोजन से बुझ जाती है, और भीतर के प्रेम के लिए बाहर प्रेमी खोजते हो, और कभी नहीं कहते कि प्रेम की प्यास तो भीतर है, बाहर के प्रेमी से क्या होगा?
बाहर और भीतर में बहुत फर्क नहीं है। वृक्ष पर जो फल अभी लटका है, बहुत दूर और बाहर है, जब तुम उसे चबा लोगे और पचा लोगे, भीतर हो जाएगा। तुम्हारा खून बन जाएगा, मांस-मज्जा बन जाएगा। आज तुम्हारे भीतर जो मांस-मज्जा है, कल तुम मर जाओगे, तुम्हारी कब्र बन जाएगी, तुम्हारी मांस-मज्जा मिट्टी में मिल जाएगी और मिट्टी से फिर वृक्ष उगेगा, और वृक्ष में फिर फल लगेंगे-तुम्हारा मांस-मज्जा फिर फल बन जाएगा। बाहर और भीतर अलग-अलग नहीं हैं, संयुक्त
__इसलिए ऐसे मन को धोखा देने के उपाय मत किया करें कि बाहर से क्या होगा!
और यह सिर्फ उपाय है। अब भीतर का तो किसी को पता नहीं, तुम रंगोगे कि नहीं रंगोगे; बाहर का पता चल सकता है। बाहर से घबड़ाते हो कि लोग गैरिक वस्त्रों में देखकर कहेंगे-अरे, पागल हो गए। लोगों का इतना डर है, लोगों के मंतव्य की इतनी चिंता है! सीधी बात नहीं कहते कि मैं लोगों से डरता हूं, कायर हूं, बहाना खोजते हो कबीर का कि कबीर ने ऐसा कहा है कि बाहर के कपड़े रंगाने से क्या होगा? मैं भी कहता हूं क्या होगा, लेकिन यह कहा उनसे जिन्होंने रंगा लिए थे। उनसे मैं भी कहता हूं।
बाहर की घटना थी, बिलकुल संयोगवशात शुरू हुई थी। कोई लड़के के भीतर ध्यान की तलाश न थी, न भगवान की कोई खोज थी। खेल-खेल में सीख लिया था, खेल-खेल में दांव लग गया। नमो बुद्धस्स, नमो बुद्धस्स रटने लगा। रटंत थी, तोता-रटंत थी, किसी बड़े मूल्य की बात नहीं थी। लेकिन रटते-रटते एक बात लगी कि रटते-रटते ही सतह पर कुछ शांति आ जाती है। वह जो उद्विग्नता थी, वह कम होने लगी। विचार थोड़े क्षीण हुए। वह जो जीत की आकांक्षा थी, वह भी क्षीण होने
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