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धर्म के त्रिरत्न
मिला, वह ध्यान से मिलता है। तो सब तरफ से वासना के झरने इकट्ठे एक धारा में हो जाते हैं और ध्यान की तरफ दौड़ने लगते हैं। लेकिन ध्यान वासना से नहीं मिलता। ध्यान तो निर्वासना की स्थिति में घटता है। जब तुम चाहोगे, तब तुम चूकोगे। ____ तो तुम्हें यह हैरानी होगी, इस छोटे से बच्चे ने चाहा तो नहीं था, यह घटना कैसे घट गयी! यह बात सार्थक है। घटना ऐसे ही घटती है, अनायास ही घटती है। इस जगत में जो भी श्रेष्ठ है, वह मांगने से नहीं मिलता। मांगने से तो हम भिखारी हो जाते हैं। बिना मांगे मिलता है। बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न चून। उसने मांगा भी नहीं था। उसे तो एक अवसर मिल गया कि अंधेरी रात, यह आकाश में झिलमिलाते तारे, यह सन्नाटा, यह चुप्पी, यह नीरव ध्वनि, यह मरघट, वह तो बैठ गया! किसी खास वजह से नहीं, कुछ लक्ष्य न था सामने, उसने शास्त्र भी न पढ़े थे, शास्त्र सुने भी न थे, संतों की वाणी भी नहीं सुनी थी, लोभ का कोई कारण भी नहीं था, वह किसी मोक्ष, किसी भगवान के दर्शन करने को उत्सुक भी नहीं था, कोई निर्वाण भी नहीं पाना चाहता था। मगर यह मौका था सन्नाटे का, और धीरे-धीरे उसे नमो बुद्धस्स के अतिरिक्त कुछ बचा भी नहीं था उसके पास, करता भी क्या! बाप आया नहीं, बैल लौटे नहीं, घर जाने का उपाय नहीं, नगर के द्वार-दरवाजे बंद हो गए, करता भी क्या? वह तो बहुत दिन से जब भी मौका मिलता था, एकांत मिलता था, नमो बुद्धस्स करता था, नमो बुद्धस्स करने लगा। डोलने लगा।
जैसे सांप डोलने लगता है बीन सुनकर, ऐसा मंत्रोच्चार अगर कोई बिना किसी वासना के करे, तो तुम्हारे भीतर की चेतना डोलने लगती है। एक अपूर्व नृत्य का समायोजन हो जाता है। चाहे शरीर न भी हिले, भीतर नृत्य खड़ा हो जाता है।
डोलते-डोलते लेट गया, गाड़ी के नीचे सो गया। सोया भी था और जागा भी था। इस जगत का जो सब से महत्वपूर्ण अनुभव है वह यही है-सोए भी और जागे भी। अभी तो हालत उलटी है-जागे हो और सोए हो। अभी लगते हो कि जागे हो
और बड़ी गहरी नींद है; आंख खुली हैं और भीतर नींद समायी है। इससे उलटी भी घटना घटती है। अभी तो तुम शीर्षासन कर रहे हो, सिर के बल खड़े हो-जागे हो
और सोए हो। जिस दिन पैर के बल खड़े होओगे—वही तो बुद्धत्व का अर्थ है-पैर पर खड़े हो जाना। आदमी उलटा खड़ा है। जो सीधा खड़ा हो गया, वही बुद्ध है। वह सोता भी है तो जागता है।
जो रात अभिशाप हो सकती थी, वह वरदान हो गयी। और जो मंत्र मात्र संयोग से मिला था, वह उस रात्रि स्वाभाविक हो गया।
संयोग की ही बात थी कि दूसरा लड़का जीतता था और यह लड़का भी जीतना चाहता था-कौन नहीं जीतना चाहता! बूढ़े तक जीत के भाव से मुक्त नहीं होते हैं, तो बच्चों से तो आशा नहीं की जा सकती है। बूढ़ों को तो क्षमा नहीं किया जा सकता, क्योंकि जिंदगी बीत गयी अभी तक इतना भी नहीं सीखे कि जीतने में कुछ सार नहीं