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________________ धर्म के त्रिरत्न यही है कि चेतन की मान लो, अचेतन की इनकार कर दो। यही छोटा कष्ट है। इसलिए सारी नैतिक व्यवस्थाएं बड़े-बड़े दंड की व्यवस्था करती हैं। हजारों साल नरक में सड़ाए जाओगे, अंगारों में सेंके जाओगे, जलते कड़ाहों में डाले जाओगे; और न मालूम कितने काल तक पीड़ा भोगनी पड़ेगी एक जरा सी बात के लिए, कि एक दूसरी स्त्री की तरफ कामवासना की दृष्टि से देख लिया, कि दूसरे के धन को अपना बनाने की, चोरी की वासना उठ गयी। और अदालतें हैं, और कानून हैं, वे सब तैयार बैठे हैं कि तुम मानो अचेतन की और तुम्हें दंड दें। वे सब चेतन की सेवा में लगे हैं। यह मनुष्य की स्थिति है। इस स्थिति में हर हालत में द्वंद्व है। तुम कुछ भी करो, तुम दुख पाओगे। इस स्थिति में सुख हो नहीं सकता। तो सुख के दो ही उपाय हैं फिर । एक उपाय यह है कि चेतन को भी अचेतन कर दो तो तुम्हारे भीतर एकरसता आ जाए - यही आदमी शराब पीकर करता है । या एल. एस. डी., या मारीजुआना, या गांजा, या भंग, यही आदमी नशा करके करता है। नशे का इतना ही अर्थ है कि वह जो चेतन मन है उसको नशे में डुबा दो, तो पूरा अचेतन हो गया – एक अंधेरी रात फैल गयी। इसलिए अगर कोई नशे में कोई जुर्म कर ले तो अदालत भी उसको कम सजा देती है। वह कहती है, इसका चेतन तो होश में था ही नहीं। एक शराबी तुम्हें गाली दे दे तो तुम उतने नाराज नहीं होते जितना वही आदमी बिना शराब पीए गाली दे तो तुम नाराज हो जाते हो। एक शराबी तुम्हें धक्का मार दे तो तुम कहते हो कि शराबी है। गैर-शराबी धक्का मार दे - वही आदमी - तो तुम लड़ने को तैयार हो जाते हो । क्या फर्क करते हो तुम शराबी में और गैर-शराबी में? अगर अदालत में यह तय हो जाए कि आदमी शराब पीए हुए था इसलिए इसने हत्या कर दी, तो उसको दंड बहुत कम मिलेगा। अदालत में तय हो जाए कि आदमी पागल है इसलिए इसने हत्या कर दी, तो दंड कम मिलेगा, दंड मिलेगा ही नहीं। क्योंकि इसका चेतन तो था ही नहीं, दंड किसको देना? यह तो पूरी अंधेरी रात था, यह तो पूरा पशु जैसा हो गया था। इसलिए शराब पीने में, नशे में, वही काम हो रहा है जो समाधि में होता है— विपरीत दिशा में हो रहा है। समाधि में हम अचेतन को चेतन बना लेते हैं और एकरस हो जाते हैं । और शराब में हम चेतन को अचेतन बना लेते हैं और एकरस हो जाते हैं। एकरसता में सुख है। इसे तुम गांठ बांधकर रख लो - एकरसता में सुख है । जब तुम एक हो जाते हो तो तुम सुखी; जब तक तुम दो हो, तब तक तुम दुखी । भीतर जो द्वंद्व है, वह दुख को पैदा करता है । घर्षण होता है। जब तुम भीतर बिलकुल एक हो जाते हो, समरस, एक लयबद्धता हो जाती है, तुम्हारे भीतर कोई द्वंद्व नहीं होता, अद्वंद्व की अवस्था होती है, तुम निर्द्वद्व होते हो, अद्वैत होते हो, बस वहीं सुख है। 71
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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