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एस धम्मो सनंतनो
हवा में डोलते हुए आनंदित हैं, इन्हें कुछ प्रयोजन नहीं है, ये जो हैं, बस पर्याप्त हैं। इन्हें किसी और वृक्षों जैसी पत्तियां नहीं चाहिए, पास में ही खड़े अशोक के वृक्षों से इनकी कोई स्पर्धा नहीं है, इनके मन में यह कभी विचार नहीं आया कि अशोक जैसे पत्ते हमारे क्यों नहीं हैं। गेंदे का फूल गुलाब से किसी तरह की स्पर्धा में नहीं है। चट्टान जो पड़ी है, उसे वृक्ष से कुछ लेना-देना नहीं है कि मैं वृक्ष जैसी क्यों नहीं हूं-कल्पना नहीं है। कल्पना नहीं है तो कामना नहीं है। जो है, जैसा है, उससे परम तृप्ति है। इसलिए प्रकृति में तुम्हें इतना स्वर्ग मालूम पड़ता है।
इसलिए कभी-कभी भागकर तुम जब हिमालय चले जाते हो, बैठते हो कभी चांद को देखते हो रात, या सागर की तरंगों को देखते हो, सूरज को ऊगते देखते हो, घने जंगलों की हरियाली को देखते हो, तब तुम्हें एक तरह की तृप्ति मिलती है। वह तृप्ति-प्रकृति की तृप्ति की थोड़ी सी छाया तुममें बन रही है। .
यहां सब शांत है, यहां कोई कहीं नहीं जा रहा है, प्रकृति अपनी जगह ठहरी है, गति नहीं है, दौड़-धूप नहीं है, प्रतियोगिता नहीं है, सब अपने होने से राजी हैं। घास का छोटा सा पौधा भी अपने होने से परम प्रसन्न है, आकाश-छूते देवदार के वृक्षों से भी उसकी कोई ईर्ष्या नहीं है, वह यह भी नहीं कहता कि तुम बड़े, मैं छोटा। छोटा-बड़ा प्रकृति में कोई होता नहीं।
आदमी की तकलीफ है कि आदमी कल्पना कर सकता है। आदमी की जो तकलीफ है उसे ठीक से समझ लोगे तो आदमी इन वृक्षों और फूलों से भी ज्यादा आनंदित हो सकता है, क्योंकि वृक्षों और पत्थरों और पहाड़ों का सुख तो अचेतेन है, आदमी का सुख चेतन हो सकता है। मगर दशा यही चाहिए। आदमी रहते हुए जिस दिन तुम वृक्ष जैसे संतुष्ट हो जाओगे, उस दिन तुम पाओगे स्वर्ग उतर आया। ___ ध्यान रखना, कोई स्वर्ग में नहीं जाता, स्वर्ग तुममें उतर आता है। संतोष के पीछे चला आता है।
तो पहली तो बात, कामना क्या है? कामना का अर्थ है-यह ठीक नहीं, वह ठीक है। यह और वह के बीच की जो दुरी है, वह कामना है। और वह दूरी कभी मिटती नहीं, वह ऐसी दूरी है जैसे क्षितिज और तुम्हारे बीच होती है। दिखता दूर, ज्यादा दूर नहीं, होगा पंद्रह मील, बीस मील; आकाश जमीन से मिलता हुआ दिखायी पड़ता है। तुम सोचते हो, दौडूंगा तो अभी घंटेभर में पहुंच जाऊंगा। दौड़ते रहो, जन्मों-जन्मों दौड़ते रहो-जन्मों-जन्मों दौड़ते ही रहे हो-कहीं भी आकाश पृथ्वी को छूता नहीं है, सिर्फ छूता मालूम पड़ता है, दिखायी पड़ता है। क्योंकि पृथ्वी गोल है, इसलिए दिखायी पड़ता है कि छू रहा है। बीस मील चलने के बाद पाओगे कि आकाश भी बीस मील पीछे हट गया। तुम सारी पृथ्वी का चक्कर लगा आओगे और पाओगे आकाश को कभी तुमने कहीं पृथ्वी को छूते नहीं देखा। छूता ही नहीं है।
ऐसी ही कामना है। यह और वह की दूरी बनी ही रहती है, उतनी की उतनी ही