________________
एस धम्मो सनंतनो
टकराओगे, न फर्नीचर पर गिरोगे, न सामान टूटेगा, न बरतन गिरेंगे, न दर्पण फूटेगा, न दीवाल में सिर टकराएगा, अब तो तुम सीधे निकल जाओगे, अब तो रोशनी है।
बेहोशी जानी चाहिए। आदमी साधारणतः बेहोश है। हम एक नशे में चल रहे हैं। इस छोटी सी घटना को सुनो
योजना विभाग के दो बाबू अफीम के बहुत शौकीन थे । इसलिए कार्यालय में भी अक्सर पिनक में रहते थे। एक दिन ऊपर से आदेश आया कि आदिवासी क्षेत्र
एक कुएं का निर्माण किया जाए। इनके जिम्मे कुएं के स्थल निरीक्षण का भार सौंपा गया। दोनों स्थल - निरीक्षण के लिए चल पड़े। रास्ते में उन्हें एक कुआं मिला। वे काफी चल चुके थे, इसलिए थकावट दूर करने के लिए थोड़ी देर वहां रुके, पानी पीया और अफीम चढ़ायी । जब अफीम काफी चढ़ गयी, तब एक बाबू ने दूसरे से कहा, क्यों यार, यदि हम लोग इस कुएं को आदिवासी क्षेत्र में ले चलें, तो नया कुआं खुदवाने का पैसा उड़ा सकते हैं। दोनों अफीम में थे, दोनों को बात जंच गयी कि बात बिलकुल सीधी-सीधी है। नया कुआं बनाने की जरूरत क्या है ? यहां कोई दिखायी भी नहीं पड़ता, कुआं एकांत में पड़ा है, इसी को ही ले चलें ।
दूसरा खुश होकर बोला, यार, तुम्हारे दिमाग का कोई जवाब नहीं | चलो कोशिश करें। इतने में हवा का झोंका आया, अफीम और चढ़ गयी, दोनों वहीं लुढ़क गए। दोनों कुएं को धक्का दे रहे थे जब लुढ़ककर गिर गए, धक्का देते ही । कोशिश में लगे थे कि ले चलें धकाकर ।
काफी देर बाद उनको बेहोश देखकर देहाती इकट्ठे हो गए। एक बाबू को कुछ होश आया तो उसने देहातियों को देखकर अपने दोस्त को कहा, बस करो यार, आदिवासी क्षेत्र आ गया है, ज्यादा और जोर लगाओगे तो अपन लोग आगे बढ़ जाएंगे। वह समझे कि आ गया गांव, ले आए हम कुएं को धकाकर यहां तक । और अब अगर ज्यादा जोर लगाया तो आगे भी निकल जा सकते हैं । रुक जाओ।
ऐसी एक पिनक है, जिसमें हम डूबे हैं । विचार की तंद्रा है, मन की बेहोशी है; सब भीतर अंधेरा-अंधेरा है, रोशनी जलती नहीं, धुआं-धुआं है; इसमें हम सब कुछ किए जा रहे हैं। जो हम करते हैं - हम शुभ भी करें ऐसी दशा में तो अशुभ ही होगा । सो आदमी से शुभ होता ही नहीं । सोए आदमी से पुण्य होता ही नहीं । और जागे आदमी से पाप नहीं होता है।
इसलिए मैं पापी को पुण्यात्मा नहीं बनाना चाहता, मैं सिर्फ सोए को जागा बनाना चाहता हूं। जिस दिन तुम्हारे भीतर ध्यान होता है— ध्यान का अर्थ है, निर्विचार चैतन्य, कोई विचार का धुआं नहीं, मात्र होश - उस होश की आभा में तुम्हें सब साफ दिखायी पड़ने लगता है, कहां चलो, क्या करो ? अब तक क्या किया और क्या-क्या परिणाम हुए, सारा अतीत स्पष्ट हो जाता है। इतना ही नहीं, सारा
54