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________________ जीने में जीवन है सवार थी-एक सुंदर महिला। नसरुद्दीन ने उससे कहा कि अगर आज रात मेरे पास रुक जाओ, तो पांच हजार रुपये दूंगा। वह महिला तो एकदम नाराज हो गयी। उसने कहा, मैं अभी पुलिस को बुलाती हूं। तुमने इस तरह की बात कही कैसे? नसरुद्दीन ने कहा, तो कोई बात नहीं, दस हजार ले लेना। दस हजार सुनकर महिला ढीली पड़ गयी, उतना तमतमायापन न रहा। और नसरुद्दीन ने कहा, कुछ फिकर न कर, पैसे की कोई कमी नहीं, पंद्रह हजार दूंगा। उस महिला ने जल्दी से नसरुद्दीन का हाथ अपने हाथ में ले लिया। नसरुद्दीन ने कहा, और अगर पंद्रह रुपये दूं तो चलेगा? तो वह महिला तो बहुत आग-बबूला हो गयी, उसने कहा, तुमने समझा क्या है मुझे ? नसरुद्दीन ने कहा, वह तो मैं समझ गया; तू भी समझ गयी, मैं भी समझ गया कि तू कौन है, अब तो मोल-भाव करना है! पंद्रह हजार में राजी है, तू कौन है यह तो हम समझ गए, अब तो मोल-भाव की बात है। पंद्रह हजार में राजी है तो कौन है, इसमें अब कोई बाधा न रही। ___ तुम भी खयाल करना, तुम्हारी नैतिकता, तुम्हारी भलाई की एक सीमा होती है। तुम चोरी शायद न करो, पांच रुपये पड़े हैं, शायद तुम निकल जाओ साधु बने। पंद्रह पड़े हैं, शायद निकल जाओ। पंद्रह हजार पड़े हैं, फिर ठिठकने लगोगे। पंद्रह लाख पड़े हैं, फिर तुम छोड़ोगे? तुम कहोगे, अभी साधुता छोड़ो! अब यह साधुता सस्ती पड़ रही है, जो पड़ा है वह ज्यादा काम का है। यह साधुता फिर सम्हाल लेंगे, एक दफा पंद्रह लाख हाथ में आ जाएं तो साधुता तो कभी भी सम्हाल लेंगे। मंदिर बनवा देंगे, दान करवा देंगे, साधु तो फिर हो जाएंगे, साधु होने में क्या रखा है? इस मौके को तुम न छोड़ सकोगे। नैतिक आदमी की सीमा होती है, धार्मिक आदमी की कोई सीमा नहीं होती। नैतिक आदमी कारण से नैतिक होता है, धार्मिक आदमी सिर्फ होश के कारण नैतिक होता है। और ध्यान के बिना होश नहीं। ___तो जिन्होंने प्रश्न पूछा है, वह होंगे, थोड़े नैतिक चिंतक होंगे, थोड़ा नीति का विचार करते होंगे, मगर धर्म का उन्हें कोई हिसाब अभी खयाल में नहीं है। और नैतिक होने से कोई नैतिक नहीं होता, धार्मिक होने से ही वस्तुतः नैतिक होता है। नीति तो धोखा है, नीति तो झूठा सिक्का है। धर्म के नाम पर चलता है, लेकिन असली नहीं है। __ मैं चाहता हूं, तुम जागो, होश से भरो। होश से भरते ही आदमी बुरा नहीं रह जाता। क्योंकि होश से भरा आदमी बुरा हो ही नहीं सकता। यह तो ऐसे ही है जैसे रोशनी जल गयी और अंधेरा समाप्त हो गया, अब तुम दरवाजे से निकलोगे, दीवाल से थोड़े ही निकलोगे। अंधेरे में कभी-कभी दीवाल से निकलने की कोशिश की थी जरूर, टकरा भी गए थे, गिरे भी थे, फर्नीचर से भी उलझ गए थे, चोट भी खा गए थे, दूसरे को भी चोट पहुंचा दी थी। लेकिन अब रोशनी जल गयी है, अब तो न
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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