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एस धम्मो सनंतनो
भी थकते हैं, खंभे भीं थकते हैं । सारा अस्तित्व प्राणवान है, इसलिए सारा अस्तित्व थकता है । और सारे अस्तित्व को दया की जरूरत है।
मगर यह तो ध्यान की परिणति है। यह उस स्वार्थ की परिणति है जिससे तुम बचना चाह रहे हो। यह उस परम स्वार्थ की अवस्था है जहां खंभे भी, जो आमतौर से मुर्दा दिखायी पड़ते हैं, वे भी जीवंत हो उठते हैं। जहां पत्थर और चट्टानें भी थकती हैं। जहां सारा अस्तित्व प्राणवान अनुभव होता है। जहां सारे अस्तित्व के साथ तुम एक तरह का तादात्म्य अनुभव करते हो, एकता अनुभव करते हो ।
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मैं कल भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता पढ़ रहा था । यह कहानी तो मैंने तुमसे बहुत बार कही है, इसे उन्होंने कविता में बांधा है। कहानी प्यारी है, इसे
समझना -
अर्धोन्मीलित नयन बुद्ध बैठे थे पद्मासन में
शिष्य पूर्ण ने कहा, जिस तरह प्राण व्याप्त त्रिभुवन में अथवा वायु निरभ्र गगन में जैसे मुक्त विचरता मैं त्रिलोक में वैसा ही कुछ हे प्रभु, घूमा करता शैल - शिखर, नदियों की धारा, पारावार तरु में वचन आपके जहां कहीं, जा पहुंचूं वहीं मरूं मैं विकल मानवों के मन जागें शांतिप्रभा में ऐसे, सूर्योदय के साथ जाग जाते हैं शतदल जैसे ।
पूर्ण ने कहा कि आपके वचनों की सुगंध फैलाता हुआ मरूं, बस यही एके
आकांक्षा है। जैसे सूर्य के ऊगने पर हजार-हजार कमल खिल जाते हैं, ऐसे आपकी ज्योति को पहुंचाऊं और लोगों के हृदय कमल खिलें ।
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अर्धोन्मीलित नयन बुद्ध बैठे थे पद्मासन में
शिष्य पूर्ण ने कहा, जिस तरह प्राण व्याप्त त्रिभुवन में अथवा वायु निरभ्र गगन में जैसे मुक्त विचरता मैं त्रिलोक में वैसा ही कुछ हे प्रभु, घूमा करता शैल-शिखर, नदियों की धारा, पारावार तरु में वचन आपके जहां कहीं, जा पहुंचूं वहीं मरूं मैं विकल मानवों के मन जागें शांतिप्रभा में ऐसे, सूर्योदय के साथ जाग जाते हैं शतदल जैसे ।
वत्स, किंतु यदि लोग न समझें, करें तुम्हें अपमानित ?
कहा पूर्ण ने, प्रभु उनको मैं नहीं गिनूंगा अनुचित धन्यवाद ही दूंगा, फेंकी धूल न पत्थर मारे केवल कुछ अपशब्द, विरोधी बातें सुनीं, उचारे
बुद्ध ने पूछा कि अगर लोग अपमान करेंगे पूर्ण, तो फिर तुझे क्या होगा? लोग