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जीने में जीवन है
चाहे तो भी छीन नहीं सकता है। मेरा सुख मेरी ऐसी संपत्ति है जो मृत्यु भी नहीं छीन पाएगी, फिर किसी से क्या स्पर्धा है! और जब स्पर्धा नहीं, तो शत्रुता नहीं। फिर एक मैत्रीभाव पैदा होता है।
यहां कोई किसी का सुख नहीं छीन सकता है। यहां प्रत्येक व्यक्ति सुखी हो सकता है, अपने भीतर पहुंचकर; और प्रत्येक व्यक्ति दुखी हो जाता है, अपने से बाहर दौड़कर। दुख यानी बाहर, सुख यानी भीतर। बाहर दौड़े तो संघर्ष है, हिंसा है, वैमनस्य है, शोषण है। भीतर आए तो न हिंसा है, न शोषण है, न वैमनस्य है।
और जो अपने सुख में थिर हुआ, उसके पास तरंगें उठती हैं सुख की। उसके पास गीत पैदा होता है। उसके पास जो आएगा वह भी उस गीत में डूबेगा।
इस दुनिया में उसी दिन दुख समाप्त होगा जिस दिन बड़ी मात्रा में ध्यान का अवतरण होगा, उसके पहले दुख समाप्त नहीं हो सकता।
अब तुम पूछते हो, 'मैं तब तक ध्यान कैसे कर सकता हूं जब तक कि संसार में इतना दुख है, दरिद्रता है, दीनता है?'
यह दुख है ही इसीलिए कि ध्यान नहीं है। और तुम कहते हो, तब तक मैं ध्यान कैसे कर सकता हूं! यह तो ऐसी बात हुई कि मरीज चिकित्सक को जाकर कहे कि जब तक मैं बीमार हूं तब तक औषधि कैसे ले सकता हूं? पहले ठीक हो जाऊं फिर औषधि लूंगा। बीमार हो इसीलिए औषधि की जरूरत है, ठीक हो जाओगे तो फिर तो जरूरत ही न होगी। बीमारी के मिटाने के लिए औषधि है ध्यान।
तुम कहते हो, 'संसार में इतना दुख, इतनी पीड़ा, इतना शोषण, इतना अन्याय है, मैं कैसे ध्यान करूं?'
इसीलिए ध्यान करो! कम से कम एक तो ध्यान करे, कम से कम तुम तो ध्यान करो! थोड़ी ही तरंगें सही तुम्हारे पास पैदा होंगी, थोड़ा तो सुख होगा। माना कि इस बड़े जंगल में एक फूल खिलने से क्या होगा, लेकिन एक फूल खिलने से और फूलों को भी याद तो आ सकती है कि हम भी खिल सकते हैं। और कलियां भी हिम्मत जुटा सकती हैं, दबी हुई कलियां अंकुरित हो सकती हैं, बीजों में सपने पैदा हो सकते हैं। एक फूल खिलने से प्रत्येक बीज में लहर पैदा हो सकती है।
फिर इससे क्या फर्क पड़ता है; तुम खिले, थोड़ी सुगंध बंटी, थोड़े चांद-तारे प्रसन्न हुए, थोड़ा सा दुनिया का एक छोटा सा कोना जो तुमने घेर रखा है, वहां सुख की थोड़ी वर्षा हुई। तुम यही तो चाहते हो न कि दुनिया में सुख की वर्षा हो! कम से कम उतनी दुनिया को तो सुखी कर लो जितने को तुमने घेरा है। तुम दुनिया का एक हिस्सा हो। तुम दुनिया का एक छोटा सा कोना हो। तुम जैसे लोगों से मिलकर ही दुनिया बनी है। आदमी आदमी से मिलकर आदमियत बनी है। आदमियत अलग तो नहीं है कहीं! जहां भी जाओगे आदमी पाओगे, आदमियत तो कहीं न पाओगे। कोई व्यक्ति मिलेगा, समाज तो कहीं होता नहीं। समाज तो केवल शब्दकोश में है।
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