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मृत्यु की महामारी में खड़ा जीवन
रट्टं सानुचरं हंत्वा अनीघो याति ब्राह्मणो। । मातरं पितरं हत्वा राजानो द्वे च सोत्थिये । वेय्यग्घपञ्चमं हंत्वा अनीघो याति ब्राह्मणो ।।
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'माता अर्थात तृष्णा'- - बुद्ध कहते हैं, सारे जीवन का जन्म तृष्णा हुआ है – 'माता अर्थात तृष्णा, पिता अर्थात अहंकार, दो क्षत्रिय राजाओं अर्थात शाश्वत दृष्टि और उच्छेद दृष्टि' - आस्तिकता और नास्तिकता – ' और उनके अनुचरों को' – सारे शास्त्रीय सिद्धांतों को - 'और उनके साथ सारे राष्ट्र को' – आसक्तियों सहित अपने भीतर के सारे संसार को - 'मारकर यह ब्राह्मण निष्पाप हो गया है।' 'माता-पिता, दो श्रोत्रिय राजाओं और व्याघ्रपंचम को मारकर ब्राह्मण निष्पाप हो जाता है।'
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समझने की कोशिश करें।
तृष्णा को कहा बुद्ध ने मां । तृष्णा है स्त्रैण । इसलिए स्त्रियां ज्यादा तृष्णातुर होती पुरुष की बजाय । स्त्रियों की पकड़ वस्तुओं पर, धन पर, मकान पर बहुत होती है - तृष्णातुर होती हैं । और स्त्रियां ईर्ष्या से बहुत जलती हैं - किसी ने बड़ा मकान बना लिया, किसी ने नयी साड़ी खरीद ली !
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तृष्णा स्त्रैण है, अहंकार पुरुष है। पुरुष को कष्ट होता है तभी जब किसी का अहंकार बढ़ता देखने लगे । जब उसके अहंकार को चोट लगती है तब वह बेचैन होता है। वस्तुएं चाहे न हों, मगर प्रतिष्ठा हो । प्रतिष्ठा के लिए सब भी छोड़ने को तैयार होता है पुरुष, मगर प्रतिष्ठा छोड़ने को तैयार नहीं होता। मैं कुछ हूं, ऐसा भाव रहे तो वह सब छोड़ने को तैयार है। भूखा मर सकता है, उपवास कर सकता है— अगर लोगों को खयाल रहे कि यह महातपस्वी है । नंगा खड़ा हो सकता है, धूप-ताप सह सकता है, बस एक बात भर बनी रहे कि यह आदमी गजब का है।
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पुरुष की जड़ उसके अहंकार में है । इसलिए स्त्री की जड़ उसकी तृष्णा में है । तृष्णा शब्द भी स्त्रैण है, अहंकार शब्द भी पुरुषवाची है । यह पुरुष का रोग है अहंकार, और तृष्णा स्त्री का रोग है । इन दोनों के मिलन से हम सब बने हैं। न तो तुम पुरुष हो अकेले, न तुम स्त्री हो अकेले । जैसे मां और पिता से तुम्हारा जन्म हुआ –आधा हिस्सा मां ने दिया है तुम्हारे शरीर को, आधा हिस्सा तुम्हारे पिता ने दिया है। कोई पुरुष एकदम शुद्ध पुरुष नहीं है, क्योंकि मां का हिस्सा कहां जाएगा ? और कोई स्त्री शुद्ध स्त्री नहीं है, क्योंकि पिता का हिस्सा कहां जाएगा ? दोनों का मिलन है । ऐसे ही चित्त बना है तृष्णा और अहंकार से । स्त्रियों में तृष्णा की मात्रा ज्यादा, पुरुषों में अहंकार की मात्रा ज्यादा । भेद मात्रा का है। और दोनों महारोग हैं। और दोनों को मारे बिना कोई दुख से मुक्त नहीं होता ।
इसलिए बुद्ध ने बड़ी अजीब बात कही है कि यह अपने माता-पिता को मारकर
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