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मृत्यु की महामारी में खड़ा जीवन पहनकर, इतने आभूषण लादकर, इतने बालों को संवारकर, यहां तू पढ़ने आयी है या किसी बाजार में !
फिर मैंने उस युवती से पूछा कि मैं एक बात और पूछना चाहता हूं, तू किसी दिन इतना सज-संवरकर आए और कोई कंकड़ न मारे, तो तेरे मन को दुख होगा कि सुख ? पहले तो वह बहुत चौंकी मेरी बात से, फिर सोचने भी लगी, फिर उसने कहा कि शायद आप ठीक ही कहते हैं। क्योंकि मैंने देखा विश्वविद्यालय में जिन लड़कियों के पीछे लोग कंकड़-पत्थर फेंकते हैं, वे दुखी हैं— कम से कम दिखलाती हैं कि दुखी हैं— और जिनके पीछे कोई कंकड़-पत्थर नहीं फेंकता, वे बहुत दुखी हैं, महादुखी हैं कि कोई कंकड़-पत्थर फेंकने वाला मिलता ही नहीं। कोई चिट्ठी-पत्री भी नहीं लिखता । जिनको चिट्ठी-पत्री लिखी जाती है वे शिकायत कर रही हैं और जिनको चिट्ठी-पत्री नहीं लिखी जाती वे शिकायत कर रही हैं। मन बड़ा विरोधाभासी है। लेकिन संसार में ठीक है, संसार विरोधाभास है। वहां हम कुछ चाहते हैं, कुछ दिखलाते हैं। कुछ दिखलाते हैं, कुछ और चाहते हैं। अगर तुम अपने मन को देखोगे तो तुम बड़े चकित हो जाओगे कि तुमने कैसे सूक्ष्म जाल बना रखे हैं। तुम निकलते इस ढंग से हो कि प्रत्येक व्यक्ति तुम में कामातुर हो जाए, और अगर कोई कामातुर हो जाए तो तुम नाराज होते हो । आयोजन उसी का करते हो, फिर जब सफलता मिल जाए तब तुम बड़े बेचैन होते हो। और सफलता करने के लिए घर से बड़ी व्यवस्था करके निकले थे। अगर कोई न देखे तुम्हें, रास्ते से तुम अपना सारा सौंदर्य-प्रसाधन करके निकल गए और किसी ने भी नजर न डाली, तो भी तुम उदास घर आओगे कि बात क्या है ? मामला क्या है ? लोग क्या मुझमें उत्सुक ही नहीं रहे ?
दूसरे की उत्सुकता अहंकार का पोषण है। तुम्हें अच्छा लगता है जब दूसरे लोग उत्सुक होते हैं, तुम मूल्यवान मालूम होते हो। जिनके भीतर कोई मूल्य नहीं है, वे इसी तरह मूल्य का अपने लिए धोखा पैदा करते हैं । दूसरे लोग उत्सुक हैं, जरूर मूल्यवान होना चाहिए। इतने लोगों ने मेरी तरफ आंख उठाकर देखा, जरूर मुझमें कुछ खूबी होनी चाहिए। तुम्हें खुद अपनी खूबी का कुछ पता नहीं है— है भी नहीं खूबी – एक झूठा भरोसा इससे मिलता है कि अगर खूबी न होती तो इतने लोग मुझमें उत्सुक क्यों होते ? जरूर मैं सुंदर होना चाहिए, नहीं तो इतने लोग उत्सुक हैं! तुम्हें अपने सौंदर्य पर खुद तो कोई आस्था नहीं है, तुम दूसरों के मंतव्य इकट्ठे करते हो । मगर संसार में ठीक । संसार पागलों की दुनिया है ।
बुद्ध ने संसारी को कुछ भी न कहा होता। लेकिन संन्यस्त हो जाने के बाद ये भिक्षु नाना प्रकार के आयोजन करते थे - पादुका सम्हालते, सजाते, वस्त्रों पर कसीदा निकालते । भिक्षापात्र ! आदमी का मन कैसा है ? भिक्षापात्र का मतलब ही यह होता है कि अब मैं आखिरी जगह खड़ा हो गया, अब मुझे प्रथम खड़े होने की इच्छा ही नहीं। वह तो भिक्षापात्र का प्रतीक है, कि मैं अब अंतिम हो गया, भिक्षु हो
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