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________________ मृत्यु की महामारी में खड़ा जीवन उन्नलानं पमत्तानं तेसं बड्ढंति आसवा।। 'जो करने योग्य है उसको तो छोड़ देता है, लेकिन जो न करने योग्य है उसे करता है, ऐसे उमड़ते मलों वाले प्रमादियों के आस्रव बढ़ते हैं । ' येसञ्च सुसमारद्धा निच्चं कायगतासति। अकिञ्चन्ते न सेवंति किच्चे सातच्चकारिनो । सतानं संपजानानं अत्थं गच्छंति आसवा ।। 'जिन्हें नित्य कायगता- - स्मृति उपस्थित रहती है, वे अकर्तव्य को नहीं करते और कर्तव्य से कभी नहीं चूकते हैं। उन स्मृतिवान और संप्रज्ञावान पुरुषों के आस्रव अस्त हो जाते हैं । ' ऐसा निरंतर होता है। तुम बाहर के रूप तो बदल लेते हो, लेकिन भीतर की वृत्ति नहीं बदलती। बाहर के ढंग बदलना तो बहुत आसान है, असली बात तो भीतर के ढंग बदलने की है। इसका यह भी अर्थ नहीं कि बाहर के ढंग मत बदलो । बाहर के ढंग इसलिए बद्लो ताकि भीतर के ढंग बदलने में सहारा मिले। लेकिन भूलकर भी यह मत समझना कि बाहर का ढंग बदल लिया तो भीतर के ढंग अपने आप बदल गए । अब कोई भिक्षु होंगे, संन्यस्त हो गए। जब संन्यस्त न हुए होंगे तो सुंदर वस्त्र पहनते होंगे, पोशाक पहनते होंगे, कीमती जूते पहनते होंगे, रास्तों पर अकड़कर चलते होंगे, इत्र- खुशबूएं अपने वस्त्रों पर छिड़कते होंगे; मोहक, सुंदर होने की चेष्टा करते होंगे। संन्यस्त हो गए, लेकिन अब भी चेष्टा जारी है, नए ढंग से जारी है। अब कुछ और नहीं है उनके पास, भिक्षापात्र है, तो भिक्षापात्र में ही खुदाई कर-कर के उसे सुंदर बना रहे हैं, उसमें ही कंकड़-पत्थर लगाकर सुंदर बना रहे हैं। अब कुछ नहीं है, लकड़ी की पादुकाएं हैं, तो उन पादुकाओं को भी सुंदर बनाने की चेष्टा में लगे हैं। अब कुछ बचे नहीं हैं, तीन चीवर हैं, तीन वस्त्र हैं, मगर उन पर भी कसीदा तो किया ही जा सकता है, उनको भी सुंदर तो बनाया ही जा सकता है। वह पुराना मन अभी भी पीछा कर रहा है। इससे फर्क नहीं पड़ता, तुम सोने-चांदी के आभूषण पहनो, या जाकर जंगल के पत्तों के आभूषण बना लो और उनको पहन लो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, आभूषण पहनने की आकांक्षा वाला मन तो वही का वही है। मैं मोहक दिखूं, यह वासना क्यों पैदा होती है? यह इसलिए पैदा होती है कि कोई मुझे मोहक जाने, कोई मुझमें आकर्षित हो, कोई मुझमें आसक्त हो, कोई मुझे पाने योग्य, चाहने योग्य माने। तो इसका अर्थ साफ है कि तुम किसी को पाने में लगे 23
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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