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________________ एस धम्मो सनंतनो प्रतिकार होकर रहेगा, दूसरा भी क्षमा तो नहीं कर देगा। इसलिए बुद्ध कहते हैं, वैर-चक्र पैदा हो जाता है; विशियस सर्किल पैदा हो जाता है, दुष्ट-चक्र पैदा हो जाता है। तुम दूसरे को दुख देते हो, दूसरा तुम्हें दुख देने को आतुर हो जाता है। फिर इस श्रृंखला का कहीं कोई अंत नहीं है। महासुख के लिए अल्प को छोड़ देना, बड़े के लिए छोटे को छोड़ देना, शाश्वत के लिए क्षणभंगुर को छोड़ देना; और ऐसा सुख खोजना जो तुम्हारा अपना हो, जिसके लिए दूसरे पर निर्भर नहीं होना पड़ता है, तब तुम स्वतंत्र हो गए। यही मुक्त जीवन की आधारशिला है। दूसरा सूत्र, द्वितीय दृश्य मन के मार्ग अति सूक्ष्म हैं। संसार के छोड़ने में ही मन नहीं छूटता है। मन संसार । का मूल है, संसार मन का मूल नहीं है। संसार छोड़ना हो तो फूल-पत्ते तोड़ने जैसा है, और जड़ें तो इससे नष्ट नहीं होती हैं। हां, जड़ें उखाड़ फेंक देने पर निश्चय ही संसार वृक्ष अपने आप सूख जाता है। मन है जड़ संसार की, इसलिए मन से मुक्ति ही वास्तविक संन्यास है। भगवान के जात्यावन नामक विहार में विहरते समय की घटना है। कुछ भिक्षु भिक्षापात्रों को सुंदर बनाने, या वस्त्रों पर नाना बेल-बूटे निकालने, या नाना प्रकार की पादुकाएं रचने, उन पर पच्चीकारी करने, या इसी तरह के कामों में संलग्न रहते थे। उन्हें ध्यान-भावना का समय ही नहीं था। और समय भी हो तो ध्यान का तो वे जैसे विस्मरण ही कर बैठे थे। __इस बात की खबर भगवान को मिली। उन्होंने उन भिक्षुओं को खूब डांटा। वे उन्हें डांटते समय अति कठोर थे। वह करुणा का ही रूप है। गुरु का प्रयोजन ही यही है कि वह चेताए, फिर चेताए और फिर-फिर चेताए। उन्होंने उन भिक्षुओं से कहा-किसलिए आए हो और क्या कर रहे हो! आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास! क्या इसीलिए भिक्षु-जीवन स्वीकार किया था? सुंदर पादुकाएं बनाने के लिए? वस्त्रों पर बेल-बूटे काढ़ने के लिए? फिर संसार में ही क्या बुराई थी? मन के जाल को समझो, भिक्षुओ! मन के सूक्ष्म खेल समझो, भिक्षुओ! एक पल को भी लक्ष्य को विस्मृत मत करो। सोते-जागते, उठते-बैठते होश रखो, भिक्षुओ! तो ही समय पाकर अनुकूल ऋतु में निर्वाण की फसल काट सकोगे। ध्यान नहीं बोया, तो निर्वाण की फसल भी हाथ लगने वाली नहीं है। फिर पछताओगे। और फिर पछताए होत का जब चिड़िया चुग गयी खेत। अभी समय है, अभी कुछ कर लो। और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं यं हि किच्चं तदपविद्धं अकिच्चं पन कयिरति। 22
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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