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________________ एस धम्मो सनंतनो - देखीं- बूढ़े सिंह की और अपनी – गर्जना निकल गयी। सिखानी न पड़ी। ऐसी गर्जना कि पहाड़ कंप गए, कि बूढ़ा सिंह कंप गया । बूढ़े सिंह ने कहा, अब तू जा तुझे जहां जाना हो। एक क्षण में सब बदल गया। अब वह भेड़ नहीं था, वह दुख- स्वप्न टूट गया, उसे अपने स्वरूप का बोध हो गया । बुद्धपुरुष यही करते हैं। बुद्धपुरुष बूढ़े सिंह हैं । कोई तुममें आदमी बनकर बैठ गया है, कोई स्त्री बनकर बैठ गया है, वह पकड़-पकड़कर ले जाते हैं नदियों के किनारे, कहते हैं जरा झांककर देखो, तुम वैसे ही हो जैसा मैं हूं। वैसा ही अमृत तुममें भरा है, जैसा मुझमें। वैसी ही भगवत्ता तुममें जैसी मुझमें। जरा देखो मेरी शकल, अपनी शकल पहचानो, न तुम स्त्री हो न तुम पुरुष हो, तुम चैतन्य हो । न तुम जवान हो, न तुम बूढ़े हो; न तुम दीन हो, न दरिद्र हो, न अमीर हो; न तुम गोरे हो, न कालै हो; तुम निराकार, निर्गुण । इस बूढ़े महावत ने शायद बुद्ध से ही यह बात सीखी होगी - निश्चित बुद्ध से ही सीखी होगी। इस हाथी को भी जानता था, फिर बुद्ध की चर्चाओं में सूत्र पकड़ आ गया होगा। आया बूढ़ा महावत, उसने अपने पुराने अपूर्व हाथी को कीचड़ में फंसे देखा। ऐसी दुर्दशा उसने कभी देखी नहीं थी । सोचा भी नहीं था, सपने में नहीं सोचा था, कि यह अपूर्व शक्तिशाली हाथी इतना दुर्बल हो जाएगा कि कीचड़ से न निकल सके—कीचड़ से न निकल सके ! जो किसी भी युद्ध - व्यूह से बाहर निकल् आया था, उसे एक दिन कीचड़ के साथ मात खानी होगी! वह हंसा। क्यों हंसा? हंसा होगा देखकर जगत की स्थिति । ऐसे सबल दुर्बल हो जाते हैं! ऐसे धनवान दरिद्र हो जाते हैं! ऐसे सम्राट भिखारी हो जाते हैं! ऐसे जवान थे, अर्थियों पर लद जाते हैं! हंसा देखकर यह भी कि यह भूल कैसे गया ? अपना स्मरण इसे नहीं रहा कि मैं कौन हूं! कैसे यह विस्मृति हुई ? बड़े युद्धों का विजेता, हाथियों में सम्राटों जैसा सम्राट, यह हस्तिराज, इसे भूल कैसे हो गयी ? यह आज कीचड़ से नहीं निकल पा रहा है! इसे अपनी स्मृति बिलकुल ही चली गयी। इसलिए हंसा होगा । और उसने किनारे से संग्राम - भेरी बजवायी । बुद्ध के पास यही सीखा होगा । युद्ध-बाजे बजवाए। जानता था इस हाथी को कि शायद वह संगीत सुनकर इसे याद आ जाए। इसीलिए तो सत्संग का मूल्य है। सत्संग का अर्थ होता है, शायद किसी बुद्धपुरुष के पास बैठकर तुम्हें अपने बुद्धत्व की याद आ जाए। शायद किसी सदगुरु के पास बैठे-बैठे तुम्हें याद आ जाए कि जो इस व्यक्ति के भीतर है, वही मेरे भीतर भी तो है। मैं नाहक परेशान हो रहा । नाहक चिंतित, उदास हो रहा। मैं नाहक हताश हो रहा। शायद किसी खिले हुए फूल को देखकर बंद कली को भी खिलने 332
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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