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जीवन का परम सत्य : यहीं, अभी, इसी में
हैं, असार मांगते हैं। परमात्मा से तो सार वही मांगता है जो परमात्मा के सिवाय और कुछ भी नहीं मांगता। जो कहता है कि सब मेरा खो जाए, लेकिन मैं जान लूं कि तुम कौन हो! सब मेरा मिट जाए, दांव पर लग जाए, लेकिन एक पहचान की किरण उतर आए, एक दफा झलक मिल जाए कि क्या है यह जीवन ! मैं कौन हूं! और यह क्या है! इस रहस्य का पर्दा उठ जाए।
उस बूढ़े हाथी ने बड़े प्रयास किए, लेकिन कीचड़ से अपने को न निकाल सका सो न निकाल सका। राजा के सेवकों ने भी बहुत चेष्टा की, सब असफल हुआ।
महावत भेजे गए। नए महावत होंगे। हाथी तो बूढ़ा था, महावत नए होंगे। उन्होंने सब नयी-नयी विधियां उपयोग में लायी होंगी, लेकिन उस हाथी से उनका कोई संपर्क नहीं था, पहचान न थी। उस हाथी का उन्हें कोई अनुभव न था। उस हाथी के भीतर की जीवन-ऊर्जा किस ढंग से काम करती है, इसका उन्हें पता नहीं था।
इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है, अगर तुम ऐसे आदमी से सलाह लिए जिसे जीवन का ठीक-ठीक अनुभव न हो, ऐसे आदमी से सलाह लिए जो तुम्हारे जीवन के अनुभव से परिचित न हो, तो भूल हो जाएगी, तो चूक हो जाएगी। __जैनों और बौद्धों ने इस संबंध में भी एक महाक्रांति की। हिंदू कहते हैं, कृष्ण
और राम भगवान के अवतार हैं। वे ऊपर से नीचे आते हैं-अवतार का मतलब होता है, ऊपर से नीचे आते हैं। वे ठेठ भगवान के हृदय से आते हैं। लेकिन इसका तो मतलब यह हुआ कि वे कभी आदमी नहीं थे। तो आदमी के जीवन-अनुभव उनके अनुभव नहीं हैं। यह बात बड़ी सोचने जैसी है। वे सीधे भगवान के घर से आते हैं। और हम तो, हम तो लंबे-लंबे जन्मों की अंधेरी रातों से गुजरते आ रहे हैं। न मालूम कितने रास्तों पर भटके हैं, न मालूम कितनी ठोकरें खायी हैं, न मालूम कितने खाई-खड्डों में गिरे हैं, न मालूम कितनी भूलें-चूकें की हैं। हमारा जीवन तो महापाप की लंबी यात्रा है। और वे आते हैं पवित्र मंदिर से सीधे! . जैनों और बौद्धों ने यह बात बदल दी। उन्होंने बुद्ध को और महावीर को अवतार नहीं कहा, तीर्थंकर कहा। तीर्थंकर का अर्थ होता है कि वे भी हमारे साथ ही इस अंधेरे की यात्रा से आ रहे हैं। हमारे ही जैसे रास्तों से गुजरे हैं, हमारे ही जैसे वासना से तड़फे हैं, हमारे जैसे ही रत्ती-रत्ती परेशान हुए हैं, हमारे जैसे ही कीचड़ में फंसे हैं, हमें पहचानते हैं। हमसे कुछ ज्यादा हैं, लेकिन जो भी हम हैं वह तो वे रहे ही हैं। उन्हें हमारी पहचान है।
इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि गीता से उतने लोगों को निर्वाण उपलब्ध नहीं हुआ, जितने लोगों को धम्मपद से निर्वाण उपलब्ध हुआ। गीता आकाशी मालूम पड़ती है। हवाई मालूम पड़ती है। शुद्ध दार्शनिक मालूम पड़ती है। धम्मपद बहुत व्यावहारिक है। आदमी को देखकर कहे गए वचन हैं। उपनिषद आकाश में हैं, आकाश-कुसुम जैसे। पृथ्वी पर उनकी कोई जड़ें नहीं मालूम होतीं।
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