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हम अनंत के यात्री हैं
देने का हक है। तम जन्मों-जन्मों जी लिए हो, फिर भी हो सकता है संन्यास के हकदार न होओ। यह हक अर्जित करना पड़ता है। यह हक हक कम है और कर्तव्य ज्यादा है। यह तो तुम्हें धीरे-धीरे कमाना पड़ता है। यह कोई कानूनी नहीं है कि मैं चाहता हूं संन्यास लेना, तो मुझे संन्यास दिया जाए। यह तो प्रसाद-रूप मिलता है। तुम प्रार्थना कर सकते हो, हक का दावा नहीं। तुम प्रार्थना कर सकते हो, हाथ जोड़कर तुम चरणों में बैठ सकते हो कि मैं तैयार हूं, जब आपकी करुणा मुझ पर बरसे, या आप समझें कि मैं योग्य हूं, तो मुझे भूल मत जाना, मैं अपना पात्र लिए यहां बैठा हूं। तुम प्रार्थना कर सकते हो, हक की बातें नहीं कर सकते। हक की बात भी अपात्रता का हिस्सा है।
जीवन में जो महत्वपूर्ण है, सुंदर है, सत्य है, उस पर दावे नहीं होते। हम उसके लिए निमंत्रण दे सकते हैं, हम परमात्मा को कह सकते हैं, तुम आओ तो मेरे दरवाजे खुले रहेंगे। तुम पुकारोगे तो मुझे जागा हुआ पाओगे। मैंने घर-द्वार सजाया है, धूप-अगरबत्ती जलायी है, फूल रखे हैं, तुम्हारी सेज-शय्या तैयार की है, पलक-पांवड़े बिछाए मैं प्रतीक्षा करूंगा, तुम आओ तो मैं धन्यभागी; तुम न आओ, तो समझूगा अभी मैं पात्र नहीं। यह पात्र का लक्षण है। तुम आओ, तो मैं धन्यभागी! तुम आओ, तो समझूगा कि प्रसाद है। न आओ, तो समझंगा अभी पात्र नहीं।
अपात्र की हालत उलटी है। तुम आओ, तो वह समझेगा आ गए, ठीक है! मेरा हक ही था, आना ही था, न आते तो मजा चखाता। आना ही पड़ता, यह मेरा हक है, यह मेरा अधिकार है। न आओ, तो वह नाराज होता है कि बड़ा अन्याय हो रहा है। संसार में अन्याय है, किसी को मिल रहा है, किसी को नहीं मिल रहा है। ज्यादती हो रही है, पक्षपात हो रहा है, भाई-भतीजावाद हो रहा है। अपात्र की भाषा होती है एक। -
पात्र की भी एक भाषा होती है। परमात्मा आता है तो पात्र कहता है-प्रसाद। मेरी तो कोई योग्यता न थी, फिर तुम आए! यह पात्र की भाषा है, जरा समझना, बड़ी उलटी भाषा है। पात्र कहता है, मैं तो अपात्र था और तुम आएं! मेरी तो कोई योग्यता न थी, मैं मांग सकू ऐसा तो मेरा कोई आधार न था, सिर्फ तुम्हारी करुणा, तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी दया; तुम रहीम हो, तुम रहमान हो, तुम महाकरुणावान हो, इसलिए आए। हक के कारण नहीं। मैं धन्यभागी हूं, अनुगृहीत हूं, यह ऋण चुकाया नहीं जा सकता, मुझ अपात्र पर कृपा की! मुझ अयोग्य की तरफ आंख उठायी! यह पात्र की भाषा है।
अपात्र कहता है, मैं पात्र, मुझसे ज्यादा पात्र और कौन है? और अभी तक नहीं आए? इतनी देर लगा रहे हो? अन्याय मालूम होता है। अपात्र अपनी योग्यता की घोषणा करता है-हक तो योग्यता की घोषणा है।
नहीं, संन्यास तो जीवन का परम फूल है, यह सहजता में खिलता है, यह
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