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________________ एस धम्मो सनंतनो एक युवक संन्यास लेने आया। पूछा, कारण क्या है? वह कहता है, नौकरी नहीं लगती। अब नौकरी नहीं लगती तो उसने सोचा कि चलो, किसी आश्रम में ही रहेंगे। मगर यह संन्यास के लिए पर्याप्त कारण मानते हो इसे? नौकरी नहीं लगती। मैंने उससे कहा, और अगर नौकरी लग जाए? तो उसने कहा, अगर आप लगवा दें तो बड़ी कृपा! फिर मैंने कहा, फिर संन्यास का क्या करोगे? तो उन्होंने कहा, अगर नौकरी लगवा दें तो फिर संन्यास की कोई जरूरत ही नहीं है। मैं तो आया ही इसीलिए हूं कि अब कहीं लगती नहीं, ठोकरें खा-खाकर परेशान हो गया, रोजगार दफ्तरों के सामने खड़े-खड़े सुबह से सांझ हो जाती है, नौकरी लगती नहीं; लगवा दें आप, तो फिर क्या जरूरत संन्यास की! अब बात सीधी-साफ है। कोई बीमार है, सोचता है शायद संन्यास...एक स्त्री अपने बेटे को लेकर आ गयी-वह बचपन से ही पागल है, मस्तिष्क उसका विकसित नहीं हुआ—इसको संन्यास दे दें। वह उसे घसीटती है, इसे संन्यास दे दें। मैं उसे पूछता हूं, इसको लेना है? वह कहती है, इसको तो कुछ होश ही नहीं, यह क्या लेगा-देगा! तो मैंने कहा, तू इसके क्यों पीछे पड़ी है? तो वह कहती है, शायद संन्यास से इसकी बुद्धि ठीक हो जाए। शायद इसका मस्तिष्क खराब है—चिकित्सक तो हार गए, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कुछ हो नहीं सकता, इसमें बुद्धि के तंतु ही नहीं हैं तो शायद...। अब इस तरह संन्यास नहीं घटता। संन्यास इस जगत की सबसे अनूठी घटना है। संगीत सीख सकता है अपात्र, अगर थोड़ी मेहनत करे। कविता भी रच सकता है अपात्र, अगर थोड़ी भाषा मांजे, तुकबंदी साधे। नाच भी सीख सकता है लंगड़ा भी नाच सीख सकता है-अगर थोड़ा अभ्यास करे। लेकिन संन्यास? संन्यास तो सर्वांग सौंदर्य है। संन्यास तो आखिरी बात है। संन्यास तो आखिरी समन्वय है। संन्यास तो समाधि है। इस पर तो जो सारे जीवन को निछावर कर दे–वे भी अगर पा लें तो धन्यभागी हैं! ___तो तुम पूछते हो कि 'सुना है मैंने अपात्र व्यक्तियों को संन्यास की दीक्षा नहीं दी जाती।' दीक्षा देने में सदगुरु को कोई कंजूसी नहीं, कोई कृपणता नहीं है, लेकिन अपात्र लेने को राजी नहीं है। अपात्र लेता नहीं है। पूछते हो, ‘ऐसा क्यों?' यह बात सीधी-साफ है। 'और क्या अपात्र सदगुरु की करुणा के हकदार नहीं हैं?' हकदार शब्द ही गलत है। यह कोई अधिकार नहीं है जिसका तुम दावा करो। यह हकदार शब्द ही अपात्र के मन की दशा की सूचना दे रहा है। संन्यास का कोई हकदार नहीं होता। यह कोई कानूनी हक नहीं है कि इक्कीस साल के हो गए तो वोट 304
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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