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________________ हम अनंत के यात्री हैं में न पड़ें कि आपसे तो हमारा लगाव है, आश्रम, आश्रम से हम परेशान हैं! तो तुम मुझसे ही परेशान हो। तो तुम्हारा मुझसे लगाव कोरा है, थोथा है, हवाई है, बातचीत का है, उसका कोई मूल्य नहीं है, उसमें कुछ यथार्थ नहीं है। जिनका मुझसे लगाव है, वे आश्रम में लीन हो गए हैं। उनको यह अड़चन नहीं पैदा होती। इस तरह के प्रश्न वे लिख-लिखकर नहीं भेजते, न इस तरह की बातें करते हैं। वे परम आनंदित हैं। आश्रम की व्यवस्था में डूबकर उन्होंने मेरे तरफ समर्पण का रास्ता खोजा है। वह समर्पण का रास्ता है। तो आश्रम की व्यवस्था अगर तुम्हें ठीक नहीं लगती, तो तुम ठीक से समझ लो कि मेरी व्यवस्था तुम्हें ठीक नहीं लगती। इससे मुझसे दूर ही रहना अच्छा है। जब ठीक लगने लगे, तब आ जाना। अगर मैं रहा, तो तुम्हारा स्वागत होगा। नहीं रहा, तो तुम्हारी तुम जानो! __ 'और क्या यह आरोपित अनुशासन आत्मानुशासन के विकास में बाधा नहीं है?' यह तुम निर्णय कर लो। जब भी हम किसी संघ में सम्मिलित होते हैं, तो हम इसीलिए सम्मिलित होते हैं कि अकेले-अकेले हमसे आत्म-विकास नहीं हो रहा है। कृष्णप्रिया, तुम्हारे पास आत्मा अभी है कहां! जिसका तुम अनुशासन कर लोगी। आत्मा के नाम से सिर्फ धोखा दोगी। तुम्हारे पास अभी विवेक कहां है? अभी तुम्हारा होश जागा कहां है? अनुशासन कौन देगा? तुम्हारी निद्रा में तुम जो भी अनुशासन दोगी, तुम्हें और गड्ढे में ले जाएगा। जिस दिन आत्मानुशासन जग जाएगा, उस दिन तो मैं भी तुमसे नहीं कहूंगा कि किसी और अनुशासन को मानो। यह और अनुशासन उसी अनुशासन को जगाने की दिशा में प्रयास है। मैं तुम्हें तभी तक अनुशासन दूंगा, जब तक मुझे लगता है, तुम्हारी आत्म-चेतना अभी जागी नहीं। जिस दिन देखूगा, तुम्हारा दीया जल गया, उस दिन तुमको कहूंगा कि अब तुम मुक्त हो, अब तुम्हें जैसा लगे वैसा करो। क्योंकि तब तुम वही करोगी, जो ठीक है। अभी तुम जो करोगी, वह गलत ही होने वाला है। अभी तुमसे ठीक हो सकता होता तो मेरे पास आने की जरूरत क्या थी? अभी तुम्हारा विवेक बुझा-बुझा है। आत्मानुशासन का यही अर्थ हुआ—एक आंख वाले आदमी का अंधा आदमी हाथ पकड़ता है। फिर जब अंधा आदमी आंख वाले का हाथ पकड़ता है तो श्रद्धापूर्वक चलना होता है। अंधा बीच-बीच में कहने लगे कि मैं बाएं जाना चाहता हूं-मैं तो आत्मानुशासन में मानता हूं और तुम मुझे दाएं खींच रहे हो! अब आंख वाला देखता है कि बाएं गड्डा है, लेकिन अंधा कहता है कि तुम मुझे दाएं खींचोगे, मैं दाएं नहीं जाना चाहता। यह तो तुम ऊपर से मेरे ऊपर आरोपित कर रहे हो, तुम मेरी स्वतंत्रता छीन रहे हो, मुझे बाएं जाना है, मैं तो अपनी आत्मा की आवाज मानूंगा। मगर आंखें भी तो होनी चाहिए! तो जाओ बाएं! तो गिरो गड्ढे में! फिर मेरा कसूर मत मानना। 297
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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