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एस धम्मो सनंतनो
अब यह बड़ी मुश्किल की बात है। अगर गड्ढे में गिरोगी, तो मेरा कसूर, कि भगवान मौजूद थे, मैं उनके पास थी, उन्होंने क्यों ध्यान न दिया? अगर मैं ध्यान , तो तुम्हारे आत्मानुशासन में बाधा पड़ती है। __ तुम तय कर लो। अगर इस संघ के हिस्से होकर रहना है, तो यह आत्मानुशासन इत्यादि की बातें छोड़ दो। तुम अभी आत्मवान नहीं हो। इसलिए तुम कोई आत्मानुशासन देने में समर्थ नहीं हो। अभी तुम अपने सब इस अहंकार की घोषणा को बंद करो–यह सिर्फ अहंकार की घोषणा है, आत्मा की नहीं। आत्मा अभी है कहां? आत्मा जग जाए, इसलिए सारा अनुशासन दे रहा हूं। जिस दिन जग जाएगी, उस दिन मैं तुमसे खुद ही कहूंगा कि कृष्णप्रिया, अब तू जा, औरों को जगा! अभी यह नहीं कह सकता। अभी इसका कोई उपाय कहने का नहीं है।
सोच लो, एक दफा ठीक निर्णय कर लो, यहां रहना हो तो पूरे रहो, यहां से जाना हो तो पूरे भाव से चली जाओ। ऐसा बीच-बीच में त्रिशंकु होकर रहना ठीक नहीं है।
पांचवां प्रश्नः
पश्चात्ताप का आध्यात्मिक विकास में क्या मूल्य है?
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पश्चा त्ता प और पश्चात्ताप में फर्क है। एक तो पश्चात्ताप होता है जो व्यर्थ
की चिंता है, तुम लौट-लौटकर पीछे देखते हो और सोचते. हो—ऐसा न किया होता, वैसा किया होता; ऐसा हो जाता, ऐसा न होता; तो अच्छा होता। यह पश्चात्ताप जो है, यह व्यर्थ का रुदन है। जो दूध गिर गया और बिखर गया फर्श पर, अब उसको इकट्ठा नहीं किया जा सकता। और यह इकट्ठा भी कर लो, तो पीने के काम का नहीं है। जो गया, गया। उसी घाव को खुजलाते रहना बार-बार किसी मूल्य का नहीं है।
अगर तुम्हारा पश्चात्ताप से यही अर्थ हो कि पीछे लौट-लौटकर देखना और रोना और बिसूरना और कहना कि ऐसा न किया होता तो अच्छा था...मगर जो हो गया, हो गया, अब उसको नहीं करने का कोई भी उपाय नहीं है। अतीत में कोई बदलाहट नहीं की जा सकती, इसे स्मरण रखो। यह एक बुनियादी सिद्धांत है, अतीत में कोई बदलाहट नहीं की जा सकती। जैसा हो गया, अंतिम रूप से हो गया। अब इसमें न तो तुम एक लकीर जोड़ सकते, न एक लकीर घटा सकते। अब यह हमारे हाथ में नहीं रहा। यह बात हमारे हाथ से सरक गयी। यह तीर हमारे हाथ से निकल गया, इसे अब तरकस में वापस नहीं लौटाया जा सकता। इसलिए इसके लिए रोने
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