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हम अनंत के यात्री हैं
पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गयी खेत। फिर सदियों तक लोग रोते हैं। __ कई दफे तुम्हारे मन में भी आता होगा-काश, हम भी बुद्ध के समय में होते! काश, हम भी महावीर के साथ चले होते उनके पदचिह्नों पर! काश, हमने भी जीसस को भर-आंख देखा होता! या काश, मोहम्मद के वचन सुने होते! कि कृष्ण के आसपास हम भी नाचे होते उस मधुर बांसुरी को सुनकर! यह पछतावा है। ___ तुम भी मौजूद थे, तुम जरूर मौजूद थे, क्योंकि तुम बड़े प्राचीन हो। तुम उतने ही प्राचीन हो जितना प्राचीन यह अस्तित्व है-तुम सदा से यहां रहे हो। तुमने न मालूम कितने बुद्धपुरुषों को अपने पास से गुजरते देखा होगा, लेकिन देख नहीं पाए। फिर पछताने से कुछ भी नहीं होता। जो गया, गया। जो बीता, सो बीता। अभी खोजो कि यह क्षण न बीत जाए। इस क्षण का उपयोग कर लो।। ___इसलिए बुद्ध बार-बार कहते हैं, एक पल भी सोए-सोए मत बिताओ। जागो, खोजो। अगर प्यास है, तो जल भी मिल ही जाएगा। अगर जिज्ञासा है, तो गुरु भी मिल ही जाएगा। अगर खोजा, तो खोज व्यर्थ नहीं जाती। परमात्मा की तरफ उठाया कोई भी कदम कभी व्यर्थ नहीं जाता है।
चौथा प्रश्नः
मेरे मन में कभी-कभी आपके प्रति बड़ा विद्रोह भड़कता है और मैं जहां-तहां आपकी छोटी-मोटी निंदा भी कर बैठती हैं। कहा गया है कि गुरु की निंदा करने वाले को कहीं ठौर नहीं। मैं क्या करूं?
पूछा है कृष्णप्रिया ने।
- जहां तक कृष्णप्रिया को मैं समझता हूं, इसमें कुछ गलतियां हैं प्रश्न में, वह ठीक कर दूं।
कहा है, 'मेरे मन में कभी-कभी आपके प्रति बड़ा विद्रोह उठता है।'
ऐसा मुझे नहीं लगता। मुझे तो लगता है, विद्रोह स्थायीभाव है। कभी-कभी शायद मेरे प्रति प्रेम उमड़ता हो। लेकिन कभी-कभी विद्रोह उमड़ता है, यह बात सच नहीं है। विद्रोह तुम्हारी स्थायी दशा है। और वह जो कभी-कभी प्रेम उमड़ता है, वह इतना न्यून है कि उसके होने न होने से कुछ बहुत फर्क पड़ता नहीं।
और कृष्णप्रिया की दशा कुत्ते की पूंछ जैसी है। रखो बारह साल पोंगरी में, जब पोंगरी निकालो, फिर तिरछी की तिरछी। कभी-कभी मुझे भी लगता है कि शायद कृष्णप्रिया के संबंध में मुझे भी निराश होना पड़ेगा-होऊंगा नहीं, वैसी मेरी आदत
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