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________________ हम अनंत के यात्री हैं एक-दूसरे के पास हैं, तो सिर्फ इसी कारण कि दोनों मेरे पास हैं— और कोई कारण नहीं है। तुम यहां बैठे हो, कितने देशों के लोग यहां बैठे हैं । तुम्हारे पास बैठा है कोई इंग्लैंड से है, कोई ईरान से है, कोई अफ्रीका से है, कोई जापान से है, कोई अमरीका से है, कोई स्वीडन से है, कोई स्विट्जरलैंड से है, कोई फ्रांस से, कोई इटली से । तुम्हारा पड़ोस में बैठे आदमी से कोई भी संबंध नहीं है, न पास में बैठी स्त्री से कोई संबंध है। तुम्हारा संबंध मुझसे है, उसका भी संबंध मुझसे है। तुम दोनों की नजर मुझ पर लगी है। यद्यपि तुम सब साथ बैठे हो, लेकिन तुम्हारा संबंध सीधा नहीं है। संघ का अर्थ होता है— जहां एक जला हुआ दीया है और सब बुझे दीयों की नजर जले दीए पर लगी है; उस केंद्र की तरफ वे सरक रहे हैं, आहिस्ता-आहिस्ता, लेकिन सुनिश्चित कदमों से। एक-एक इंच, लेकिन बढ़ रहे हैं। एक-एक बूंद, लेकिन जग रहे हैं। जिस क्षण बहुत करीब आ जाएंगी दोनों की बातियां, उस दिन छलांग होगी। जले हुए दीए से ज्योति बुझे दीए में उतर जाएगी । ज्योति से ज्योति जले । जले दीए की ज्योति जरा भी कम नहीं होगी, बुझे दीए की ज्योति जग जाएगी। बुझे को मिल जाएगी, जले की कम न होगी। यही सत्संग है। जो देता है, उसका कम नहीं होता। और जिसे मिलता है, उसके मिलने का क्या कहना, कितना मिल जाता है ! उपनिषद कहते हैं, पूर्ण से पूर्ण निकाल लो तो भी पीछे पूर्ण शेष रह जाता है। सत्संग में यह रोज घटता है। ईशावास्य के इस अपूर्व वचन का निर्वचन रोज सत्संग में होता है। सत्संग का अर्थ होता है— कोई पूर्ण हो गया है, उससे तुम पूर्ण भी निकाल लो तो भी वह पूर्ण का पूर्ण ही रहता है। वहां कुछ कमी नहीं आती। तुम सूने थे, पूरे हो जाते हो; तुम खाली थे, भर जाते हो; तुम्हारा पात्र लबालब हो जाता है, छलकने लगता है। और ऐसी-वैसी छलकन नहीं, ऐसी छलकन कि अब तुमसे कोई पूरा ले ले, तो भी तुम खाली नहीं होते । संघ का अर्थ होता है— केंद्र पर जाग्रतपुरुष हो, बुद्ध हो, जिन हो, कोई जिसने स्वयं को जीता और जो स्वयं में जागा, भगवत्ता हो केंद्र पर, तो उसके आसपास जो बुझे हुए लोग इकट्ठे हो जाते हैं, सोए-सोए लोग। माना कि सोए हैं, लेकिन उनके जीवन में भी जागने का कम से कम सपना तो पैदा हो गया। जागे नहीं हैं, सच, लेकिन जागने का सपना तो पैदा हो गया है, जागने की तरफ बढ़ने तो लगे हैं, टटोलने लगे हैं। अंधेरे में टटोल रहे हैं, अभी टटोलने में बहुत व्यवस्था भी नहीं हो सकती, लेकिन आभास मिलने लगे हैं। 1 कभी सुबह देखते हैं न, नींद टूटी नहीं है, जागे भी नहीं हैं, ऐसी दशा होती है कभी । हल्की-हल्की नींद भी है अभी और हल्की-हल्की जाग भी आ गयी - दूध वाला दूध दे रहा है द्वार पर खड़ा, यह सुनायी पड़ता सा मालूम भी पड़ता है, पत्नी चाय इत्यादि बनाने लगी है चौके में, आवाज बर्तनों की सुनायी भी पड़ती है; बच्चे 289
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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