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________________ ध्यान का दीप, करुणा का प्रकाश कुछ भी न पाया; मुसलमान मत होना, क्योंकि मैं मुसलमान रहा और मैं सिर्फ लड़ा और झगड़ा और मैंने कुछ नहीं पाया। तुम अपने बेटे से कहोगे अगर तुम उसे प्रेम करते हो कि जो भूलें मैंने की, तू मत दोहराना। कहीं ऐसा न हो कि जैसा मेरा जीवन व्यर्थ की बातों में उलझा और रेगिस्तान में खो गया, उत्सव हाथ न लगा, रस की कोई धार न बही, कोई गीत न फूटा, कोई फूल न खिले, ऐसा तेरे साथ न हो जाए मेरे बेटे, तू ध्यान रखना, तू मंदिर-मस्जिद से सावधान रहना, मैं इन्हीं में उलझ गया। तू मंदिर-मस्जिद से अपना आंचल बचाकर निकल जाना, तू सत्य की खोज करना। मैं नहीं कर पाया, मैं कायर था, मैंने अपने बड़े-बूढ़ों की बात मान ली थी और मैंने खुद कभी खोज नहीं की। तू मेरी बात मत मानना, किन्हीं कमजोर क्षणों में अगर मैं आग्रह भी करूं कि मेरी बात मान ले, तो भी मत मानना; तू हिम्मत रखना, तू साहस रखना और अपना ही सत्य खोजना। क्योंकि निजी सत्य ही केवल सत्य है। जो स्वयं की खोज से मिलता है, वही मुक्त करता है। __ लेकिन इतना प्रेम कहां है! प्रेम ही होता तो पृथ्वी और ढंग की होती! यहां हिंदू न होते, मुसलमान न होते; यहां हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी न होते; यहां गोरे और काले में भेद न होता; यहां स्त्री और पुरुष के बीच इतनी असमानता न होती; यहां ब्राह्मण और शूद्र न होते। अगर दुनिया में प्रेम होता, तो ये मूढ़ताएं न होतीं। मगर ये मूढ़ताएं धर्म की आड़ में छिपी बैठी हैं। धर्म की मिठास में खूब जहर छिपा बैठा है। डरते होंगे लोग कि हमारे बच्चे बुद्ध के पास न चले जाएं। सोचते वे यही होंगे कि बच्चों के प्रेम के कारण हम ऐसा कर रहे हैं। तुम्हारे सोचने से क्या होता है? तुम लाख सोचो, तुम जो करते हो, उसका परिणाम बताएगा कि क्या सच है! बुद्ध आए हों गांव में, कौन ऐसा बाप होगा जो अपने बेटे से न कहे कि सब छोड़, लाख काम छोड़, जा बुद्ध को सुन! हम तो चूके, हम तो जीवन में न सुन पाए, हम अभागे थे, तू जा। हम भी आएंगे, शायद तेरे जीवन में जलती किरण देखकर हमारे जीवन में भी फिर जोश आ जाए। तू अभी युवा है, तू शायद जल्दी समझ ले। __ लेकिन बूढ़े सोचते हैं कि हम ज्यादा समझदार हैं। जैसे समझदारी का तुम्हारे जिंदगी के व्यर्थ के अनुभव से कोई संबंध है! क्योंकि तुम चालीस साल एक ही दफ्तर सुबह गए, शाम घर लौटे, तो तुम बड़े अनुभवी हो! कि तुम गड्डा खोदते रहे सड़क पर चालीस साल तक तो तुम बड़े अनुभवी हो! कि तुम्हें बड़ा ज्ञान हो गया! कि दुकान पर कपड़े बेचते रहे तो तुम बड़े अनुभवी हो! तुम्हारा अनुभव क्या है? तुम्हारे अनुभव से सत्य का संबंध क्या है? सत्य के जानने के लिए सरलता ज्यादा उपयोगी है, बजाय तुम्हारा तथाकथित अनुभव। अनुभव ने तुम्हें विकृत कर दिया है, बहुत लकीरें खींच दी हैं तुम्हारे मन पर। इन लकीरों के कारण अब अगर बुद्ध हस्ताक्षर भी करें, तो उनका पता भी न चलेगा। 261
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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