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एस धम्मो सनंतनो
नहीं है। पिछली बार तुम आए, तब से मैं ठीक से माला नहीं फेर पाया; माला फेरता हूं, तुम्हारी याद आती है कि सब फिजूल है। राम-राम जपता हूं, तुम्हारी बात याद आती है कि कोका-कोला जपो तो भी ऐसा ही परिणाम होगा। तुम मुझे बहुत सता रहे हो । मूर्ति के सामने बैठता हूं और मैं जानता हूं कि मूर्ति पत्थर है । और अब मौत मेरी करीब आती है। तुम देखते हो, मेरे हाथ-पैर कंपने लगे, अब मैं उठ भी नहीं सकता, मुझे मेरे ऊपर छोड़ दो।
मैंने उनसे कहा, मुझे कुछ अड़चन नहीं है, लेकिन जो बात होनी शुरू हो गयी है, अब उसे रोका नहीं जा सकता; जो अंकुर फूट चुका है, उसे अब रोका नहीं जा सकता। अब तुम लाख उपाय करो तो तुम राम-राम अब उसी अंधश्रद्धा से नहीं कह सकते जो तुम पहले कहते रहे हो। और मैंने उनसे कहा, अगर मेरी सुनते हो तो मैं तो कहूंगा कि मौत करीब आ रही है, इसलिए जल्दी बदल लो। क्योंकि जो तुम समझने लगे हो कि व्यर्थ है, मौत में टूट जाएगा। अगर एक दिन बचा है, तो एक दिन काफी है; अगर एक क्षण बचा है, तो एक क्षण काफी है, इस एक क्षण में भी जीवनभर का कचरा छोड़ दो। और पहली बार हिम्मत जुटाओ, पहली बार शांत बनने की हिम्मत जुटाओ। और मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि कोई दूसरा नाम जो मैं तुम्हें कोई दूसरा मंत्र नहीं दे रहा हूं। मैं तुमसे इतना ही कह रहा हूं कि जो तुम्हें झूठा लगता है, अब उसे मत जपों। बिना जपते हुए मर जाओ, हर्जा नहीं है । बिना मूर्ति के सामने बैठे मर जाओ, हर्जा नहीं है। क्योंकि जो मूर्ति झूठ हो गयी है तुम्हें; मैं न आऊंगा, इससे कुछ फर्क न पड़ेगा। और मैं कभी भी न आया होता तो भी मूर्ति झूठी ही थी, चाहे तुम्हें याद आती, चाहे न आती । झूठ से कोई पार नहीं होता, झूठ की नाव नहीं बनती। सिर्फ सत्य की नाव बनती है।
जैसे-जैसे आदमी बूढ़ा होता है, और डरने लगता है।
इसलिए अक्सर दुनिया में जब भी बुद्ध जैसे व्यक्ति पैदा होते हैं, तो जवान उन्हें पहले स्वीकार करते हैं। युवक-युवतियां पहले स्वीकार करते हैं। छोटे बच्चे भी कभी स्वीकार कर लेते हैं; लेकिन बड़े-बूढ़ों को बड़ी कठिनाई होती है। अगर बड़े-बूढ़े स्वीकार भी करते हैं तो थोड़े से बड़े-बूढ़े, जो शरीर से शायद बूढ़े हो गए हों, लेकिन आत्मा से जो जवान होते हैं, युवा होते हैं । जो भीतर से अभी भी कायर नहीं हो गए होते हैं।
उम्र कायर कर देती है आदमी को । जवानी में आदमी सोचता है, ठीक जो हो उस पर चलूंगा; बुढ़ापे में सोचने लगता है, जिस पर चलता रहा हूं उसी पर चलता रहूं, अब कहां ठीक, कहां गैर-ठीक ! अब समय कहां ? अब फिर से निर्णय करना महंगा पड़ सकता है। कहीं ऐसा न हो जो हाथ में है वह भी छूट जाए और जो हाथ में नहीं है वह मिले भी न ! जैसे-जैसे बुढ़ापा आता है, वैसे-वैसे आदमी भीरु होने लगता है।
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