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एस धम्मो सनंतनो
हिंदुओं के कुछ ग्रंथ कहलाते हैं, श्रुति। सुना जिन्हें। और कुछ ग्रंथ कहलाते हैं, स्मृति। याद रखा जिन्हें। हिंदुओं के सारे ग्रंथ दो हिस्सों में बांटे जा सकते हैं-श्रुति और स्मृति। या तो सुना, या याद रखा। लेकिन धर्म तो होता है अनुभूति, न श्रुति, न स्मृति।
बुद्ध उसी धर्म के प्रगाढ़ प्रतीक थे। वे कहते थे—जानो, स्वानुभव से जानो, अप्प दीपो भव। स्वभावतः, परंपरावादी घबड़ाता रहा होगा, सांप्रदायिक घबड़ाता रहा होगा। क्योंकि संप्रदाय का असली दुश्मन धर्म है। ___ आमतौर से तुम सोचते हो कि हिंदू का दुश्मन मुसलमान, मुसलमान का दुश्मन हिंदू, तो गलत सोचते हो; दोनों सांप्रदायिक हैं। लड़ें कितने ही, मगर वास्तविक दुश्मनी उनकी नहीं है। एक एक तरह की स्मृति को मानता है, दूसरा दूसरी तरह की स्मृति को मानता है, विवाद उनमें कितना ही हो, लेकिन मौलिक मतभेद नहीं है। दोनों स्मृति को मानते हैं। दोनों अतीत को मानते हैं। . असली विरोध तो होता है धर्म का। और एक मजे की बात है कि धर्म का विरोध सारे संप्रदाय मिलकर करते हैं। __इसे तुम कसौटी समझना। जब बुद्ध जैसा व्यक्ति पैदा होता है, तो ऐसा नहीं कि हिंदू उसका विरोध करते हैं और जैन विरोध नहीं करते; कि जैन विरोध करते हैं, हिंदू विरोध नहीं करते; कि मुसलमान विरोध करते हैं, ईसाई विरोध नहीं करते। जब भी बुद्ध जैसा व्यक्ति पैदा होगा तब तुम एक चमत्कार देखोगे कि सभी सांप्रदायिक लोग उसका इकट्ठे होकर विरोध करते हैं-हिंदू हों कि मुसलमान, कि ईसाई, कि जैन-सभी मिलकर उसका विरोध करते हैं। क्योंकि वह संप्रदाय के मूल पर ही चोट कर रहा है। वह यह कह रहा है कि धर्म संप्रदाय बन ही नहीं सकता। संप्रदाय लाश है, मरा हुआ धर्म है। इस लाश से सिर्फ दुर्गंध निकलती है। इससे किसी की मुक्ति नहीं होती। इस लाश को ढोते रहे तो तुम भी धीरे-धीरे लाश हो जाओगे। तो यह छोटी सी कथा शुरू होती है
गौतम बुद्ध का नाम संकीर्ण, सांप्रदायिक चित्त के लोगों को भयाक्रांत कर देता था। ____ उस नाम में अंगार था। उससे भय पैदा हो जाता था। और भय तभी पैदा होता है जब तुम जो पकड़े हो, वह गलत हो। नहीं तो भय पैदा नहीं होता।
तुमने अगर सत्य को ही स्वीकार किया हो, तो तुम निर्भय हो जाते हो। सत्य निर्भय करता है। सत्य मुक्त करता है। असत्य को पकड़ा हो तो तुम सदा भयभीत रहते हो कि कहीं सत्य सुनायी न पड़ जाए। कहीं ऐसा न हो कि कोई बात मेरी मान्यता को डगमगा दे। इसलिए सांप्रदायिक लोग कहते हैं कि सुनना ही मत, दूसरे की बात गुनना ही मत। दूसरे के पास जाना ही मत।
क्यों? इतना क्या भय है? तुम्हारे पास सत्य है, तो तुम घबड़ाते क्यों हो?
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