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________________ एकमात्र साधना-सहजता कहना कि घबड़ाए न और वापस आ जाए। न तो यहां कोई उससे कुछ कहेगा, न कोई कुछ पूछेगा। जो हुआ, हुआ। मुझे तो कुछ हानि नहीं हुई, मुझे कुछ हानि हो नहीं सकती, ऐसा कुछ भी नहीं है जो तुम मुझसे छीन सको। जो मेरा है वह मेरा इतना है कि उसे तुम मुझसे छीन नहीं सकते; उसे मैंने तुमसे लिया नहीं है। तुम सम्मान दो कि अपमान, इससे जरा भी भेद नहीं पड़ता। तुम्हारा अपमान और सम्मान, सब, दोनों बराबर हैं। मेरी प्रतिष्ठा तुम पर आधारित नहीं है। मेरी प्रतिष्ठा मेरी आत्म-प्रतिष्ठा है। मेरी जड़ें मेरे अपने भीतर हैं, तुमसे मैं रस नहीं लेता। इसलिए तुम अगर रस न दो तो मेरी कोई हानि नहीं होती। इसलिए मैं चुप रहा। लेकिन दया उस लड़की पर आती है। वह नाहक झंझट में पड़ गयी। उसका जरूर बहुत नुकसान हुआ। तो जापानी मित्र यहां हैं, जब वे वापस जाएं तो उसे खोजें और उसको कह दें कि वह आ जाए, यह उसका घर है। और ऐसी भूल-चूक तो आदमी से होती है। इसमें कुछ चिंता लेने की जरूरत नहीं है। यहां उसे कोई जवाब-सवाल नहीं होने वाला है; न कोई पूछेगा, न कोई उसे सताएगा, न इसके विस्तार में जाएगा। इसके विस्तार में जाने का कुछ अर्थ ही नहीं है। जिन महात्माओं ने उसे राजी कर लिया इस प्रचार के लिए, उन्होंने मेरा तो कुछ नुकसान नहीं किया, लेकिन उस लड़की के जीवन को बुरी तरह नुकसान पहुंचा दिया। जिन्होंने उसे राजी किया, उन महात्माओं पर तो उसकी श्रद्धा कभी हो नहीं सकती, और जिस पर श्रद्धा थी, उस पर नाहक श्रद्धा को खंडित करवा दिया। लेकिन इस तरह खंडित होती भी नहीं श्रद्धा। आ गयी होगी लोभ में। उसे कठिनाइयां थीं, वह लोभ में आ गयी होगी। वह विद्यार्थी थी, पैसे की अड़चन थी, उसे पढ़ना था अभी, वह संस्कृत पढ़ना चाहती थी, वर्षों का काम था, एक पैसा उसके पास नहीं था, आ गयी होंगी लोभ में। लेकिन लोभ में आने के कारण इन महात्माओं के प्रति सम्मान तो नहीं हो सकता। और सिर्फ लोभ के कारण उसने जो कह दिया, उसके कारण जो कहा है वह सच्चा है, ऐसा भाव उसके भीतर तो नहीं हो सकता। उसे सुनकर चाहे किसी और ने मान लिया हो कि यह सच्चा है, लेकिन वह स्वयं तो कैसे मान सकती है कि सच्चा है। इसलिए उसकी आत्मा कचोटती है। उस पर मुझे दया है। तो कोई उस तक खबर पहुंचा दे तो अच्छा है। आखिरी प्रश्न: मैं भिक्षु वज्जीपुत्त जैसा ही हूं। लेकिन मैं भागने की तैयारी में नहीं हूं। 247
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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