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________________ मृत्यु की महामारी में खड़ा जीवन भगवान की उपस्थिति में मृत्यु का नंगा नृत्य धीरे-धीरे शांत हो गया था। हो ही जाना चाहिए। हो ही जाता है। जैसे ही याद आनी शुरू होती है कि मैं आत्मा हूं, कि मैं परमात्मा हूं, कि मेरे भीतर दिव्य ज्योति जल रही है, वैसे ही देह की बात समाप्त हो गयी। फिर जो तुम्हारे मां-बाप से पैदा हुए तुम, वह तुम न रहे। तादात्म्य टूट गया। तुम तो वह हो गए जो सदा से हो। तुम्हारे मां-बाप भी न थे तब भी तुम थे। तुम्हारी देह मिट्टी में गिर जाएगी फिर भी तुम रहोगे। उसकी जरा सी याद आती है, सब बदल जाता है। मृत्यु पर तो अमृत की ही विजय हो सकती है। और जिसको अमृत की उपलब्धि हो गयी है, उसकी मौजूदगी में यह सरलता से घट जाता है। इसलिए सत्संग का बड़ा मूल्य है। महामारी तो सभी नगरियों में फैली हैं, सभी नगरियां वैशाली हैं। तुम भी छोटे-मोटे नहीं हो, तुम भी एक बड़े नगर हो। एक-एक व्यक्ति एक-एक नगर है। हमारे पास जो शब्द है पुरुष, वह बहुत बहुमूल्य है। पुरुष उसी से बना है जिससे पुर–नगर। पुरुष का मतलब होता है, तुम एक पूरे नगर हो, और तुम्हारे नगर में छिपा हुआ, बसा हुआ मालिक है-पुरुष। वैज्ञानिकों से पूछो तो वे कहते हैं, एक शरीर में कम से कम सात करोड़ जीवाणु हैं। सात करोड़! बंबई छोटी नगरी है। बंबई से समझो कि चौदह गुना ज्यादा। एक शरीर में सात करोड़ जीवाणु हैं। सात करोड़ जीवन। उन सबके बीच में तुम बसे हो। नगर तो हो ही। वैशाली छोटी रही होगी। और इस नगर में जल्दी ही मौत आने वाली है, महामारी आने वाली है। उसके कदम तुम्हारी तरफ पड़ ही रहे हैं। इस बीच अगर तुम्हें कभी भी, कहीं भी भगवत्ता का साथ मिल जाए, किसी भी ऐसे व्यक्ति का साथ मिल जाए जिसके भीतर घटना घट गयी हो, तो उसकी मौजूदगी तुम्हें तुम्हारी गर्त से उठाने लगेगी-सिर्फ मौजदगी। सत्संग का अर्थ होता है, गुरु कुछ करता नहीं करने का यहां कुछ है भी नहीं, किया कुछ जा भी नहीं सकता लेकिन उसकी मौजूदगी, सिर्फ उसकी उपस्थिति, उसकी तरंगें तुम्हें सोते से जगाने लगती हैं। तुमने देखा न, कोई नाचता हो, तुम्हारे पैर में थाप पड़ने लगती है। कोई हंसता हो, तुम्हारे भीतर हंसी फूटने लगती है। कोई उदास हो, तुम्हारे भीतर उदासी घनी हो जाती है। दस आदमी उदास बैठे हों, तुम जब आए थे तो बड़े प्रसन्न थे, उनके पास बैठ जाओगे उदास हो जाओगे। तुम बड़े उदास थे, दस आदमी बड़े खिलखिलाकर हंसते थे, गपशप करते थे, तुम आए, तुम अपनी उदासी भूल गए, तुम भी हंसने लगे। किसी जागरूक पुरुष के सत्संग में, जो उसके भीतर घटा है, वह तुम्हारे भीतर तरंगित होने लगता है। हम अलग-अलग नहीं हैं, हम एक-दूसरे से जुड़े हैं। हमारे तंतु एक-दूसरे से गुंथे हैं। अगर तुम किसी भी व्यक्ति के साथ हो जाओ, तो जैसा वह व्यक्ति है वैसे तुम होने लगोगे। 13
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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