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एस धम्मो सनंतनो
दुनिया है। हम आकाश में उड़ते नहीं, आकाश की भाषा हमारी पकड़ में नहीं आती।
लेकिन बुद्ध ने इनकार न किया। उन्होंने कहा, चलो, किसी बहाने सही, मुझे याद किया। चलो महामारी इनको एक संदेश ले आयी कि अब भगवान की जरूरत है, चलो इसका भी उपयोग कर लें।
भगवान की उपस्थिति में मृत्यु का नंगा नृत्य धीरे-धीरे शांत हो गया।
ऐसा हुआ या नहीं, इसकी फिकर में मत पड़ना। ये बातें कुछ भीतर की हैं। बाहर हुआ हो तो ठीक, न हुआ हो तो ठीक। लेकिन भगवान की उपस्थिति में मृत्यु का नृत्य शांत हो ही जाता है। तुम अपने हृदय की वैशाली में भगवान को बुलाओ, इधर भगवान का प्रवेश हुआ, उधर तुम पाओगे, मौत बाहर निकलने लगी। यह है अर्थ।
बौद्ध शास्त्रों में भी ऐसा अर्थ नहीं लिखा है। वे यही मानकर चलते हैं कि यह तथ्यगत बात है। मैं नहीं मानता कि यह तथ्यगत बात है। यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है-तत्वगत है, तथ्यगत नहीं। इसमें तत्व तो बहुत है, लेकिन इसको फैक्ट और तथ्य मानकर मत चलना। अन्यथा व्यर्थ के विवाद पैदा होते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है! महामारी कैसे दूर हो जाएगी! और कैसे दूर होगी, बुद्ध को खुद भी तो एक दिन मरना पड़ा। यह शरीर तो जाता ही है, बुद्ध का हो तो भी जाता है। बुद्ध जैसे प्यारे आदमी का शरीर हो तो भी जाता है।
तो मौत बुद्ध की मौजूदगी में हट गयी हो वैशाली से, ऐसा तो लगता नहीं, लेकिन किसी और गहरे तल पर बात सच है। जब भी कोई व्यक्ति भगवान को बुला ले आता है अपने हृदय में, तो मौत हट जाती है। तुम्हें पहली दफा अमृत की प्रतीति होनी शुरू होती है। भगवान की मौजूदगी में तुम्हारे भीतर पहली दफे वे स्वर उठते हैं जो शाश्वत के हैं। एस धम्मो सनंतनो। तुम्हें एक दृष्टि का नया आयाम खुलता हुआ मालूम पड़ता है।
हमने देह के साथ अपने को एक समझ लिया है, तो हम मरणधर्मा हो गए हैं। हम भूल ही गए हैं कि हम देह नहीं हैं—देह में जरूर हैं। हमें स्मरण नहीं रहा है कि हम मिट्टी के दीए नहीं हैं। मिट्टी के दीए में जलती हुई जो चिन्मय ज्योति है, वही हैं। तुम्हारे भीतर जो जागरण है, होश है, चैतन्य है, वही तुम हो। देह तो मंदिर है, तुम्हारा देवता भीतर विराजमान है। और देवता मंदिर नहीं है। देवता के हटते ही मंदिर कचरा हो जाएगा, यह भी सच है। मगर देवता के रहते मंदिर मंदिर है। जैसे ही तुम्हारी अंतर्दृष्टि बदलती है, तुम्हें अपने साक्षीभाव का स्मरण आता है, वैसे ही अमृत का प्रवेश होता है। ___ तो मैं तो इसका ऐसा अर्थ करता हूं-तत्वगत। तथ्यगत, मुझे चिंता नहीं है। मैं कोई ऐतिहासिक नहीं हूं। और मेरे मन में तथ्यों का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। मैं तथ्यों को हमेशा तत्वों की सेवा में लगा देता हूं।
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