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एकमात्र साधना-सहजता
दुर्गंध उठ रही है। उसे कौन नगर में रखे! उसे गांव के बाहर फिंकवा दिया है। यह वही स्त्री है जिसे लोग सिर पर लिए घूमते थे। जिसके चरण चूमते थे सम्राट।। ___ अंतिम घड़ी, वसंत रोग आखिरी स्थिति में है, कोई अब प्रेमी नहीं, नगर से दूर मार्ग पर असहाय पड़ी रो रही है, दम तोड़ रही है। वासवदत्ता ने आंखें खोलीं, वह कातर कंठ से बोली-दयामय, तुम कौन हो? मैं हं संन्यासी उपगुप्त, भूल तो नहीं गयीं न ! भूली नहीं हो न ! मैंने कहा था
समय जे दिन आसीबे
आपनी जाइबो तोमार कंजे जिस दिन समय आएगा, मैं तुम्हारे कुंज में स्वयं उपस्थित हो जाऊंगा। लगता है, समय आ गया, मैं उपस्थित हूं। मैं तुम्हारी किस सेवा में आ जाऊं, मुझे कहो, आज्ञा दो। मैं आ गया हूं, वासवदत्ता! मैं सेवा के लिए तैयार होकर आ गया हूं। उस दिन तो आता तो तुमसे सेवा मांगता। उस दिन तो वे आते थे जिन्हें तुम्हारी सेवा की जरूरत थी, आज मैं आ गया हूं, मैं तुम्हारी सेवा करने को तत्पर हूं। .. रवींद्रनाथ की यह कविता बड़ी बहुमूल्य है। यह संन्यासी के लिए एक ज्योतिर्मय भावदशा की स्मृति बनाए रखने के लिए बड़ी काम की है। इसे स्मरण रखना। संसार तो छोड़ना है, संसार की माया-ममता भी छोड़नी है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि संन्यास कठोर बना दे तुम्हें, कृपण बना दे तुम्हें, कि तुम्हारे हृदय को पत्थर बना दे, तब तो तुम चूक गए। __ और अक्सर ऐसा होता है। अक्सर तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी-महात्मा जिस दिन माया-मोह छोड़ते हैं संसार का, उसी दिन दया-ममता, दया-करुणा भी छोड़ देते हैं। तुम्हारे तथाकथित संन्यासी रूखे-सूखे लोग हैं। उन्होंने माया-मोह छोड़ी, उसी दिन से वे डर गए हैं। उन्होंने अपने को सुखा लिया भय के कारण। वे रसहीन हो गए हैं। उन पर न नए पत्ते लगते हैं, न नए फूल आते हैं। इसलिए तो उनके जीवन में तुम्हें सौंदर्य दिखायी न पड़ेगा। उनके जीवन में एक कुरूपता है। मरुस्थल जैसे हैं तुम्हारे संन्यासी! चूक गए। रस से थोड़े ही विरोध था। __ पतंजलि ने कहा न-रसो वै सः, वह सत्य तो रसमय है, वह परमात्मा तो रस भरा है। संन्यासी रस से थोड़े ही विरुद्ध है! रस संसार में व्यर्थ न बहे, रस दया बनकर बहे, करुणा बनकर बहे, सेवा बनकर बहे; रस तुम्हें भिखारी न बनाए, सम्राट बनाए; याचक न बनाए, दानी बनाए; रस तुम लुटाओ, रस तुम दो। __ इसलिए जो संन्यास तुम्हें माया-मोह से छुड़ाकर करुणा-दया से भी छुड़ा देता हो, समझना चूक गए। तीर निशाने पर न लगा, गलत जगह लग गया। भूल हो गयी। माया-ममता से छुड़ाने का प्रयोजन ही इतना है कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा करुणा बने। माया-ममता छूट गयी और करुणा बनी नहीं, तो संसार भी गया और सत्य भी न मिला। तुम धोबी के गधे हो गए-घर के न घाट के-तुम कहीं के न रहे।
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