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एस धम्मो सनंतनो
समय जे दिन आसीबे
आपनी जाइबो तोमार कुंजे जिस दिन समय आ जाएगा, उस दिन मैं स्वयं ही तुम्हारे कुंज में उपस्थित हो जाऊंगा। वासवदत्ता कहती है कि भिक्षु मेरे घर आओ! बैठो रथ में, मैं तुम्हें घर ले चलूं! और भिक्षु कहता है-आऊंगा, जरूर आऊंगा, समय जे दिन आसीबे, जिस दिन समय आ जाएगा, आपनी जाइबो तोमार कुंजे, वासवदत्ता, तुझे मुझे बुलाना भी न पड़ेगा, मैं अपने आप आ जाऊंगा। समय की प्रतीक्षा! __ और बहुत दिनों तक समय नहीं आया। वासवदत्ता प्रतीक्षा करती, प्रतीक्षा करती। उसका मन न लगता। इस संसार में अब राग-रंग उसे दिखायी न पड़ता। बहुत लोग आते, बहुत लोगों से संबंध भी बनता-नगर-वधू थी, वही उसका काम. था, वेश्या थी लेकिन अब किसी देह में वह दीप्ति न दिखायी पड़ती। और किसी देह में वह सौंदर्य न दिखायी पड़ता। उपगुप्त की वे शांत आंखें उसका पीछा करतीं। रात हो कि दिन, सपने उठते।
लेकिन बात सुन ली थी उसने उपगुप्त की कि जब समय आएगा तब आ जाऊंगा। और इतने बलपूर्वक कही थी बात कि यह बात भी साफ हो गयी थी: उपगुप्त उन लोगों में से नहीं जिसे डिगाया जा सके; जो कहा है, वैसा ही होगा; समय की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। आपनी जाइबो तोमार कुंजे, अपने आप आऊंगा तेरे कुंज में। तो वासवदत्ता ने फिर बुलाने की चेष्टा भी नहीं की। कभी राह पर आते-जाते शायद उपगुप्त दिखायी भी पड़ जाता होगा, लेकिन फिर कहना भी उचित न था। संन्यासी ने बात कह दी थी। प्रतीक्षा और प्रतीक्षा, उसका सारा जीवन बीत गया। ___ फिर एक रात्रि-पूनम की रात्रि–उपगुप्त मार्ग से जा रहे थे। उन्होंने देखा कि कोई मार्ग पर रुग्ण पड़ा है, गांव के बाहर। उन्होंने उसे अपने अंक में लिटा लिया; जर्जर, वसंत के दानों से गल गया शरीर, कोई नारी है, प्रकाश में देखा-अरे, वासवदत्ता! यौवन बीत गया, शरीर जराजीर्ण, अंतिम घड़ी है। वसंत रोग के दानों से शरीर पूरी तरह घिर गया है, बचने का कोई उपाय नहीं है। कोई अब प्रेमी भी नहीं बचा-ऐसे क्षण में कहां प्रेमी बचते हैं। नगर में भी रखने को लोग राजी न रहे, नगर के बाहर खदेड़ दिया है-ऐसी रुग्ण देह को कौन नगर में रखेगा! अब उसकी घातक बीमारी दूसरों को लग सकती है।
यह जो महारोग है-वसंत रोग इसको हम कहते हैं-नाम भी हमने खूब चुना है, इस देश में नाम भी हम बड़े हिसाब से चुनते हैं! सारे शरीर पर काम-विकार के कारण फफोले फैल गए हैं। यौन-रोग है। लेकिन हमने नाम दिया है वसंत रोग-जवानी का रोग, वसंत का रोग। जो अब तक सौंदर्य बनकर प्रगट हुआ था, वही अब कुरूपता बनकर प्रगट हो रहा है। जो अब तक चमड़ी पर आभा मालूम होती थी, वही घाव बन गयी है। सारा शरीर घावों से भर गया है, सड़ रहा है, महा
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