SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकमात्र साधना-सहजता देखना-अपनी आंखों को गड़ाए चुपचाप राह से गुजर रहा है। इसके चलने में एक अपूर्व प्रसाद है, जो केवल संन्यासी के चलने में ही हो सकता है। जिसको कुछ लेना-देना नहीं है, उसके तनाव चले गए। वह यहां-वहां दुकानों पर लगे बोर्ड नहीं देख रहा है, न चीजें देख रहा है, न लोग देख रहा है। जब इस संसार से कुछ लेना ही न रहा, तो अब क्या देखना-दाखना! शांत है। अपने भीतर रमा चुपचाप चला जा रहा है। संन्यासी अपूर्वरूप से सुंदर हो जाता है। संन्यास जैसा सौंदर्य देता है मनुष्य को और कोई चीज नहीं देती। संन्यस्त होकर तुम सुंदर न हो जाओ, तो समझना कि कोई भूलचूक हो रही है। और संन्यासी का कोई श्रृंगार नहीं है। संन्यास इतना बड़ा श्रृंगार है कि फिर किसी और श्रृंगार की कोई जरूरत नहीं है। ___ तुमने देखा कि संसारी भोगी है। जवानी में शायद सुंदर होता हो, लेकिन जैसे-जैसे बुढ़ापा आने लगता है, असुंदर होने लगता है। लेकिन उससे उलटी घटना घटती है संन्यासी के जीवन में; जैसे-जैसे संन्यासी वृद्ध होने लगता है, वैसे-वैसे और सुंदर होने लगता है। क्योंकि संन्यास का कोई वार्धक्य होता ही नहीं, संन्यास कभी बूढ़ा होता नहीं। संन्यास तो चिर-युवा है। इसलिए तो हमने बुद्ध और महावीर की जो मूर्तियां बनायी हैं, वह उनके युवावस्था की बनायी हैं। इस बात की खबर देने के लिए कि संन्यासी चिर-युवा है। हमने अपूर्व सौंदर्य से भरी मूर्तियां बनायी हैं महावीर और बुद्ध की। उनके पास कुछ भी नहीं है, न कोई साज है, न शृंगार है-कृष्ण को तो सुविधा है, कृष्ण की मूर्ति को तो हम सजा लेते हैं, मोरमुकुट बांध देते, रेशम के वस्त्र पहना देते, घुघरू पहना देते, हाथ में कंगन डाल देते, मोतियों का हार लटका देते-बुद्ध और महावीर के पास तो कुछ भी नहीं है। बुद्ध के पास तो एक चीवर है जिसको ओढ़ा हुआ है, महावीर के पास तो वह भी नहीं, वह तो नग्न खड़े हैं, लेकिन फिर भी अपूर्व सौंदर्य है। ऐसा सौंदर्य जिसको किसी सजावट की कोई जरूरत नहीं। . ऐसे इस उपगुप्त को निकलते देखा होगा वासवदत्ता ने। और वासवदत्ता सुंदरतम लोगों को जानती है, सुंदरतम लोगों को भोगा है; सुंदर से सुंदर से उसकी पहचान है, सुंदरतम उसके पास आने को तड़फते हैं-उसने रथ रोक लिया। बौद्ध भिक्षु उपगुप्त को देखकर वह ठिठक जाती है। दीपक के प्रकाश में-राह के किनारे जो दीपस्तंभ है उसके प्रकाश में वह सबल, स्वस्थ और तेजोदीप्त गौरवर्ण संन्यासी को देखती ही रह जाती है। ऐसा रूप उसने कभी देखा नहीं। संन्यासी का सहज सौंदर्य उसके मन को डिगा देता है। अब तक लोग उसके प्रेम में पड़े थे, पहली दफा वासवदत्ता किसी के प्रेम में पड़ती है। वह संन्यासी को अपने घर आमंत्रित करती है। संन्यासी बड़ी बहुमूल्य बात उत्तर में कहता है। उपगुप्त उससे कहता है 239
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy