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________________ एस धम्मो सनंतनो दो; यह सब को मिल सकता है, अब उनको खबर करो; जगाओ सोयों को, चिल्लाओ, मुंडेरों पर चढ़ जाओ, आवाज दो, पुकारो। कोई सोया न रह जाए, ऐसी चेष्टा करो। चार दिन तुम्हारी जिंदगी के बचे हों, इनको पुकारने में लगा दो। बुद्ध बयालीस साल जिंदा रहे ज्ञान के बाद, बयालीस साल अथक पुकारते रहे-सुबह-सांझ, गांव-गांव चिल्लाते फिरे। चालीस वर्ष महावीर भी ऐसे ही भटकते रहे, पुकारते रहे, चोट करते रहे, किसी भांति कोई जाग जाए। एक छोटी सी कविता है रवींद्रनाथ ठाकुर की। कविता का नाम है-अभिसार। संन्यासी के जीवन-दर्शन की इसमें सुंदर झलक है। संन्यासी, जगत के भोग के लिए तो जगत को छोड़ देता है, पर सेवा के लिए नहीं। सेवा के लिए तो वह जगत का हो जाता है, पहली दफा जगत का हो जाता है, और सदा के लिए हो जाता है। भोग छोड़ने के कारण और भी ज्यादा जगत का हो जाता है। क्योंकि जब तक तुम जगत के भोग में उत्सुक हो, तब तक तुम भिखारी हो; तुम मांग रहे हो जगत से, दोगे क्या खाक! जिस दिन तुमने भोग की आकांक्षा छोड़ दी, तुम मालिक बने, तुम सम्राट बने। अब तुम दे सकते हो। भोग के कारण हम सेवा चाहते हैं। भोग छोड़ने पर सेवा देने का प्रारंभ होता है। इस कविता में रवींद्रनाथ ने कहा है-रात्रि का समय, यौवन-मद में मत्त नगर-नटी वासवदत्ता अभिसार को निकली है। __ वेश्या को कहते थे उस समय नगर-नटी, नगर-वधू-सारे गांव की वधू। जो सुंदरतम लड़कियां होती थीं पुराने दिनों में, नगर की जो सुंदरतम युवती होती थी, उसे नगर-वधू बना देते थे, ताकि लोगों में संघर्ष न हो, कलह न हो, झगड़ा न हो। जो सुंदरतम है उसके लिए बहुत प्रतियोगिता मचेगी, झगड़ा होगा, कलह होगी। सुंदरतम को नगर-वधू बना देते थे कि वह सब की हो, एक की न हो। यह वासवदत्ता उस समय की बड़ी सुंदरी थी। बुद्ध के समय की कथा है यह, रवींद्रनाथ ने कविता उसी कथा पर लिखी है। __ वासवदत्ता अभिसार को निकली है अपने रथ पर सवार होकर, फूलों से सजी। वह सुंदरतम युवती थी उन दिनों की। बौद्ध भिक्षु उपगुप्त को राह में देखकर ठिठक जाती है, रथ को रोक लेती है। एक बौद्ध भिक्षु उपगुप्त, बुद्ध का एक शिष्य पास से गुजर रहा है। वासवदत्ता ने सम्राट देखे हैं, द्वार पर भीख मांगते सम्राट देखे हैं, उसके द्वार पर भीड़ लगी रहती थी राजपुत्रों की, सभी को उसका मिलन हो भी नहीं पाता था-बड़ी महंगी थी वासवदत्ता। लेकिन ऐसा सुंदर व्यक्ति उसने कभी देखा नहीं था, यह जो भिक्षु उपगुप्त। यह अपने पीत वस्त्रों में, भिक्षापात्र लिए, शांत मुद्रा में चला जा रहा है। इसने न तो रास्ता देखा, न भीड़भाड़ देखी है, न वासवदत्ता को देखा है, यह तो अपनी आंखों को चार फीट आगे-जैसा बुद्ध कहते थे, चार फीट से ज्यादा मत 238
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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