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एकमात्र साधना-सहजता
पैर नए की तरफ उठे तो ही गति होती है। दोनों पैर एक साथ उठा लिए तो हड्डी-पसली टूट जाएगी-गिरोगे। और दोनों जमाए खड़े रहे तो भी विकास नहीं होगा और दोनों एक साथ उठा लिए तो भी विकास नहीं होगा। विकास होता है-एक जमा रहे पुराने में, एक नए की तरफ खोज करता रहे। इस संतुलन को ही ध्यान में रखना होता है।
तो तुमसे इसीलिए तो मैं गीता पर बोलता हं, ताकि पुराने पर पैर जमा रहे एक। मगर गीता पर मैं वही नहीं बोलता जो तुम्हारे और बोलने वाले बोल रहे हैं, दूसरा पैर तुम्हारा सरका रहा हूं पूरे वक्त। धम्मपद पर बोल रहा हूं; लेकिन कोई बौद्ध धम्मपद पर इस तरह नहीं बोला है जैसे मैं बोल रहा हूं, क्योंकि मेरी नजर और है-एक पैर जमा रहे; एक पैर तुम निश्चित रख लो कि चलो भगवान बुद्ध की ही तो बात हो रही है, कोई हर्जा नहीं। दूसरा पैर मैं सरका रहा हूं। महावीर पर बोलता हूं। तुम बड़े प्रसन्न होकर सुनते हो कि चलो भगवान महावीर की बात हो रही है। निश्चित हो जाते हो। तुम अपना सब सुरक्षा का उपाय छोड़कर बिलकुल बैठ जाते हो तैयार होकर कि चलो यह तो अपनी ही बात हो रही है, उसी बीच तुम्हारा एक पैर मैं सरका रहा हूं। तुम जितने निश्चित हो जाते हो, उतनी ही मुझे सुविधा हो जाती है।
तुम्हें निश्चित करने को बोलता हूं गीता पर, बाइबिल पर, धम्मपद पर, महावीर पर। तुम निश्चित हो जाते हो। तुम कहते हो, यह तो पुरानी बात है, अपने ही शास्त्र की बात हो रही है, इसमें कुछ खतरा नहीं है। खतरा नहीं है, ऐसा सोचकर तुम अपनी ढाल-तलवार रख देते हो। वहीं खतरा शुरू होता है। वहीं से मैं तुम्हें थोड़ा आगे खींच लेता हूं।
दूसरा प्रश्नः
जिस तरह आप श्री जे. कृष्णमूर्ति के संबंध में प्रेम और स्तुति के साथ बोलते हैं, वैसा वे आपके बारे में नहीं बोलते हैं। कभी-कभी तो लगता है कि वे कुछ अन्यथा कहने जा रहे हैं, लेकिन फिर टाल जाते हैं। फलस्वरूप आपके शिष्य तो बड़े प्रेम से कृष्णमूर्ति को सुनने जाते हैं, लेकिन उनके मानने वाले आपके पास खुले दिल से नहीं आते। कृपाकर समझाएं।
क ष्ण म ति जो कहते हैं, सर्वांशतः सही है। सौ प्रतिशत सही है। लेकिन
-कृष्णमूर्ति का रास्ता बहुत संकीर्ण है। पूरा सही है, पगडंडी जैसा है। मेरा रास्ता बड़ा राजपथ है। मेरे पथ पर बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट, मोजिज, जरथुस्त्र,
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