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एकमात्र साधना - सहजता मोहते हैं, तो मस्जिद जाए। लेकिन यह धर्म से इसका कोई संबंध नहीं है, स्थापत्य से संबंध है, सौंदर्य-बोध से संबंध है ।
तुम अपना मकान एक ढंग से बनाते हो, मैं अपना मकान एक ढंग से बनाता हूं, इससे कोई झगड़ा तो खड़ा नहीं होता। मैं अपने भगवान का मकान एक ढंग से बनाता हूं, तुम अपने भगवान का मकान एक ढंग से बनाते हो, इससे झगड़ा खड़ा क्यों हो? मैं अपना मकान बनाता हूं गोल, तुम चौकोन, इससे कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता। झगड़े की जरूरत ही नहीं, तुम्हारी पसंद अलग, मेरी पसंद अलग; हम दोनों जानते हैं कि मकान का प्रयोजन एक कि मैं इस गोल मकान में रहूंगा, तुम उस चौकोन मकान में रहोगे । रहने के लिए मकान बनाते हैं।
इतनी स्वतंत्रता तो होनी ही चाहिए कि जिसको जैसी मर्जी हो, वैसा मकान बना ले। पुराने ढंग का बनाए, नए ढंग का बनाए; प्राचीन शैली का बनाए कि कोई नयी शैली खोजे; छप्पर ऊंचा रखे कि नीचा; बगीचा लगाए कि न लगाए; पौधों का बगीचा लगाए कि रेत ही फैला दे; अपनी मौज ! इसमें हम झगड़ा नहीं करते। न हम यह कहते हैं कि तुम तिरछे मकान में रहते, तुम गोल मकान में रहते, मैं चौकोर मकान में रहता, हम अलग-अलग हैं, हम में झगड़ा होगा, हमारे सिद्धांत अलग हैं।
इससे ज्यादा भेद मंदिर-मस्जिद में भी नहीं है । अपनी-अपनी मौज ! मस्जिद भी बड़ी प्यारी है। जरा हिंदू की आंख से हटाकर देखना, तो मस्जिद में भी बड़ी आकांक्षा प्रगट हुई है। वे मस्जिद की उठती हुई मीनारें आकाश की तरफ, मनुष्य की आकांक्षा की प्रतीक हैं-आकाश को छूने के लिए। मस्जिद का सन्नाटा, मस्जिद की शांति, मूर्ति भी नहीं है एक, चित्र भी नहीं है एक — क्योंकि मूर्ति और चित्र भी बाधा डालते हैं— सन्नाटा है, जैसा सन्नाटा भीतर हो जाना चाहिए ध्यान में, वैसा सन्नाटा है। मस्जिद का अपना सौंदर्य है । खाली सौंदर्य है मस्जिद का । शून्य का सौंदर्य है मस्जिद का ।
मंदिर की अपनी मौज है । मंदिर ज्यादा उत्सव से भरा हुआ है, रंग-बिरंगा है, मूर्तियां हैं कई तरह की, छोटी-बड़ी, लेकिन मंदिर अपना उत्सव रखता है – घंटा है, घंटा बजाओ, भगवान को जगाओ, खुद भी जागो, पूजा करो। मंदिर की गोल गुंबद, मंडप का आकार, उसके नीचे उठते हुए मंत्रों का उच्चार, तुम पर वापस गिरती वाणी - मंत्र तुम पर फिर-फिर बरस जाते । एक मंदिर में जाकर ओंकार का नाद करो, सारा मंदिर गुंजा देता है, सब लौटा देता है, तुम पर फिर उंडेल देता है; एक घंटा बजाओ, फिर उसकी प्रतिध्वनि गूंजती रहती है। यह संसार परमात्मा की प्रतिध्वनि है, माया है। परमात्मा मूल है, यह संसार प्रतिध्वनि है, छाया है। मंदिर अलग भाषा है। मगर इशारा तो वही है । फिर हजार तरह के मंदिर हैं।
दुनिया में धार्मिक और अधार्मिक बचेंगे। लेकिन हिंदू-मुसलमान - ईसाई नहीं होने चाहिए। यह भविष्य की बात है। यहां जो प्रयोग घट रहा है वह उस भविष्य के
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