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________________ सत्यमेव जयते 'जैसे सीमांत का नगर भीतर-बाहर खुब रक्षित होता है, उसी प्रकार अपने को रक्षित रखे। क्षणभर भी न चूके, क्योंकि क्षण को चूके हुए लोग नर्क में पड़कर शोक करते हैं।' बुद्ध कहते हैं, जैसे सीमांत का नगर, ऐसा हो संन्यासी। नगर दो तरह के होते हैं। सीमांत का नगर होता है, जैसे कि पंजाब है। तुमने कभी सोचा कि पंजाबी इतना मजबूत कैसे हो गया है? सीमांत के लोग सदा मजबूत हो जाते हैं। सीमांत पर रहने वाले लोग सदा कट्टर हो जाते हैं, हिम्मतवर हो जाते हैं। मध्यदेश में रहने वाले लोग ढीले-पोले हो जाते हैं। हो ही जाते हैं, क्योंकि वहां कोई खतरा तो आता नहीं। सारा खतरा जब आया तो पंजाब। जब भी कोई खतरा आए तो पंजाब, पहली ही टक्कर पंजाब में। सिकंदर आए, कि तैमूर आए, कि नादिर आए, कि कोई भी आए, आए तो पंजाब। तो पंजाबी को पहले टक्कर लेनी पड़े। तो उसे सजग भी रहना पड़े। उसे जूझने के लिए तैयारी भी रखनी पड़े। तो अगर वह बलशाली हो जाए और उसमें एक साहस आ जाए, आश्चर्य नहीं है। मध्यदेश में रहने वाला आदमी, उस पर झगड़े-झंझट आते ही नहीं। सुरक्षित है, चारों तरफ से सुरक्षित है। उस पर खतरा नहीं आता, तो उसमें रीढ़ भी पैदा नहीं होती। बुद्ध कहते हैं, संन्यासी सीमांत पर जैसे नगर होता है ऐसा होना चाहिए। संसारी तो ठीक है, बीच में रहता है, उस पर उतने खतरे भी नहीं हैं। लेकिन संन्यासी पर खतरे ज्यादा हैं, क्योंकि उसने वासनाओं से टक्कर लेने का निर्णय किया। उसने वृत्तियों के ऊपर उठने की आकांक्षा की। वह इस संसार के पार जाने के लिए अभीप्सु हुआ है। उसने एक बड़ा अभियान करना चाहा है। उस पर खतरे ज्यादा हैं। सारी वृत्तियां जिनके वह पार जाना चाहता है उस पर हमला करेंगी। लोभ संसारी को उतना नहीं सताता, जितनी तीव्रता से संन्यासी को सताता है। क्योंकि लोभ देखता है कि तुम निकले। कि तुम चले मेरे हाथ के बाहर! जा कहां रहे हो! लोभ आखिरी हमला करता है। .. काम संसारी को उतना नहीं सताता है जितना संन्यासी को सताता है। क्योंकि काम भी देखता है कि जा कहां रहे हो, महाराज! मुझे छोड़ चले! इतने दिन का साथ ऐसे तोड़ चले! रुको, मैं भी आता हूं! और बड़े जोर से हमला करेगा। स्वाभाविक, इतना पुराना संगी-साथी, ऐसे एकदम अचानक रास्ते में छोड़कर आप चल पड़े! पूरी जिद्द से, हठ से लगेगा। झुकाएगा। स्वाभाविक है। तो बुद्ध कहते हैं, 'सीमांत का नगर जैसे भीतर-बाहर से खूब रक्षित...।' ऐसा संन्यासी हो, भीतर-बाहर से खूब रक्षित। ध्यान से रक्षित, शांति से रक्षित, धैर्य से रक्षित, श्रद्धा से रक्षित। 'क्षणभर भी न चूके।' और ऐसा भी न करे कि एकाध क्षण चूकेंगे तो क्या हर्जा है! एक क्षण चूके तो 215
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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