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एस धम्मो सनंतनो
नहीं पकड़ने से कुश हाथ को ही छेद देता है, वैसे ही ठीक से नहीं ग्रहण करने से श्रामण्य भी नर्क में ले जा सकता है।'
कयिरा चे कयिराथेनं दल्हमेनं परक्कमे । सिथिलो हि परिब्बाजो भिय्यो आकिरते रजं ।।
'यदि प्रवज्या-कर्म करना है- यदि संन्यास लेना है तो फिर भलीभांति लेभलीभांति करे, उसमें दृढ़ पराक्रम के साथ लग जावे । ढीला-ढाला श्रामण्य बहुत मल व धूल बिखेरता है । '
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उससे तो संसारी भला। कम से कम धोखाधड़ी तो नहीं है। झूठा संन्यास न ले, बुद्ध कहते हैं। क्योंकि झूठा संन्यास और भी खतरनाक है । संसारी से भी ज्यादा
खतरनाक ।
अब थोड़ा समझो। अगर यह सुंदरी परिव्राजिका न होती और वेश्या होती तो शायद गांव के लोग इतनी जल्दी भरोसा न करते। कहते कि अरे वेश्या है, उसकी बात का क्या भरोसा ! दो कौड़ी उसकी कीमत है, उसकी बात का क्या भरोसा ! यह अगर वेश्या होती तो कोई इसकी बात का शायद इतनी आसानी से भरोसा न करता । लेकिन यह श्राविका थी, यह परिव्राजिका थी, यह संन्यासिनी थी, फिर बुद्ध की ही संन्यासिनी थी, अब इसकी बात तो कैसे झुठलाओ ! जब यह कहती है तो ठीक ही कहती होगी। लोगों ने जल्दी भरोसा कर लिया। थी तो यह स्त्री वेश्या ही, नहीं तो इस तरह राजी हो जाती !
वेश्या का अर्थ क्या होता है ? इस शब्द पर कभी ध्यान दिया? यह शब्द उसी से बनता है, जिससे वैश्य बनता है। वैश्य का मतलब होता है— बेचकर जीने वाला, दुकानदार। वेश्या का मतलब होता है - अपने को बेचकर, अपने शरीर को बेचकर जीने वाली । उसने अपनी आत्मा तक बेच दी, ऐसा झूठ बोली जो उसकी आत्मा के विपरीत था । ऐसा झूठ बोली, जो उसके विपरीत था जिसके चरणों में सिर झुकाया था। ऐसा झूठ बोली, जो उसके विपरीत था जिसको भगवान पुकारा था। यह आत्मा बेच देना हो गया । वेश्या ही थी। मगर ऊपर से वस्त्र तो पीत वस्त्र थे, वस्त्र तो भिक्षुणी के थे, वस्त्र तो परिव्राजिका के थे, रंग-ढंग तो संन्यासिनी का था, इसलिए और भी आसानी हो गयी।
तो बुद्ध कहते हैं, 'ढीला-ढाला श्रामण्य बहुत मल व धूल बिखेरता है।'
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नगरं यथा पच्वंतं गुत्तं संतरबाहिरं ।
एवं गोपेथ अत्तानं खणो वे मा उपच्चगा।
खणातीता हि सोचंति निरयम्हि समप्पिता ।।