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सत्यमेव जयते
बड़ा फर्क है। हिमालय की तस्वीरें देखी हों और फिर जाकर हिमालय देखना, बड़ा फर्क है। तस्वीर में न तो वह ताजगी है, न वह शीतलता है; तस्वीर में न हवाएं हैं, न रोशनी है; तस्वीर में कहां वे ऊंचाइयां जो हिमालय की हैं! कहां वे गहराइयां जो हिमालय की हैं ! तस्वीर में कहां वे पक्षी जो हिमालय पर गीत गाते, कहां वे फूल जो खिलते और सुगंध से भर देते हैं घाटियों को ! तस्वीर तो तस्वीर है ! जो तस्वीरों में देखा था, वह सामने आंख के आ गया।
वेद तो तस्वीर है, उपनिषद तो तस्वीर है, हजारों साल बाद कोई व्यक्ति बुद्ध होता। तो जो धर्मानुरागी थे, उनको ऐसा नहीं लगा कि बुद्ध वेद के विपरीत हैं। उन्हें तो ऐसा लगा, बुद्ध वेद के साक्षी हैं। अब तक वेद बिना साक्षी के था, बुद्ध में साक्षी मिल गया। अब तक जो बात केवल तर्क थी, अब अनुभव बनने का उपाय हो गया। यह सामने खड़ा है व्यक्ति ! और जो इसके भीतर हो सकता है, वह हमारे भीतर भी हो सकता है।
उनके हृदय-कुसुम भी भगवान की किरणों में खुले जाते थे। उनके मन- पाखी भगवान के साथ अनंत की उड़ान के लिए तत्पर हो रहे थे।
जो धर्मानुरागी है, वह तो बुद्धपुरुषों की मौजूदगी से आह्लादित हो जाता है। इसकी ही तो प्रतीक्षा थी जन्मों-जन्मों से कि कोई हो जो प्रमाण हो । बौद्धिक प्रमाण नहीं चाहिए धर्मानुरागी को, जीवंत, अस्तित्वगत प्रमाण चाहिए। कोई हो, जिसकी हवा में भगवत्ता हो। जिसके कारण हमें अनुभव में आए कि भगवान है। जिसकी मौजूदगी में हमें प्रमाण मिलने लगे कि भगवान है। जिसकी मौजूदगी हमें बताए कि संसार पदार्थ पर समाप्त नहीं हो जाता है, यहां छिपे हुए रहस्य भी हैं। यहां बड़े गहरे रहस्य दबे पड़े हैं। खोज के लिए उपाय है। जिसकी मौजूदगी हमारे लिए अभियान की पुकार बने। जो हमें चुनौती दे कि आओ, मेरे साथ चलो ! और जैसे पंख मेरे हैं ऐसे तुम्हारे भी हैं । तुम कभी उड़े नहीं, इसलिए पंखों की तुम्हें याद नहीं । तुम पंख लेकर ही पैदा हुए हो । फड़फड़ाओ, तुम भी उड़ सकोगे। जो मुझे मिला है, वह तुम्हारी भी संपदा है।
लेकिन ऐसे लोग तो दुर्भाग्य से थोड़े ही थे ।
उस दिन भी थोड़े थे, उसके पहले भी थोड़े थे, अब भी थोड़े हैं। दुर्भाग्य है यह कि इतने धार्मिक लोग हैं, मगर धर्मानुरागी नहीं। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा जाते हुए कितने लोग हैं, लेकिन धर्म के प्रेमी कहां! यह तो सब थोथा व्यवहार है, यह तो लोकोपचार है । यह तो समाज की व्यवस्था है कि लोग चर्च चले जाते रविवार को, कि गुरुद्वारा चले जाते, कि जपुजी पढ़ लेते, कि गीता पढ़ लेते, कि नमोंकार मंत्र का जाप कर लेते, कि माला फेर लेते। लेकिन हृदय से न माला फेरी, न जपुजी किया; हृदय से न कभी मंदिर गए, न हृदय से कभी परमात्मा को पुकारा । हृदय से पुकारा होता तो मिल ही गया होता। नहीं मिला है, यह काफी प्रमाण है कि ऐसे ही
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