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________________ सत्यमेव जयते तो जैसे ही खबर मिल जाए उन्हें कि बुद्ध का भी किसी स्त्री से कोई संबंध है, तो फिर इसमें वे विचार नहीं करते, फिर इसकी खोजबीन नहीं करते, इसको तो वे तत्क्षण मान लेते हैं। इसे तो वे स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि यह तो उनके भीतर की ही बात थी । यह उन्होंने अफवाह मानी, ऐसा नहीं, वे सिर्फ अफवाह की प्रतीक्षा करते थे, राह देखते थे कि आती ही होगी खबर - देर अबेर की बात है । कोई न कोई तो पता लगा ही लेगा। एक को धोखा दोगे, दूसरे को धोखा दोगे, कितने लोगों को धोखा दोगे? और कितने दिन तक धोखा दोगे ? कहीं न कहीं से तो पता चल ही जाएगा। अब चल गया पता ! बैठे ही थे, तत्पर बैठे थे, नजर गड़ाए बैठे थे, पलक-पांवड़े बिछाए बैठे थे कि अफवाह आती ही होगी। तो जैसे ही अफवाह आती है, उनके हृदय बड़े प्रसन्न हो जाते हैं। वे अपनी पीठ ठोंकने लगते हैं। वे कहते हैं, मैं तो पहले से ही कहता था, मैं तो पहले से ही जानता था कि यही होगा, आखिर पाया गया। फिर वे खोजने नहीं जाते, फिर वे पता लगाने नहीं जाते। तुम अपने मन को भी देखना । तुम अपने मन के संबंध में भी एक खयाल रखना। अगर किसी के संबंध में कोई तुम्हें खबर दे कि फलां आदमी भगवत्ता को उपलब्ध हो गया, तो तुम मानते नहीं । तुम कहते हो, अजी, कहीं ऐसी बातें होती हैं ! कहानियों में लिखी हैं, पुराणों में लिखी हैं, होतीं थोड़ी । कौन भगवान को उपलब्ध होता, और कलियुग में तो कम से कम होता ही नहीं! होते थे, पहले होते रहे होंगे, हमें उसका कुछ पता नहीं, आज तो कोई नहीं हो सकता - इस कलियुग में, इस पंचम-काल में, जहां भ्रष्टता ऐसी फैली है, कौन होने वाला है ! ऐसा ही वे सदा कहते थे। बुद्ध के समय में भी वे यही कहते थे - कि अब कहां! होते थे सतयुग में, अब कहां! कृष्ण के समय में भी यही कहते थे — कि होते थे पहले, अब कहां! यह पहले कब था? ऐसा कोई काल नहीं हुआ जब लोगों ने यही न कहा हो । कहते थे—पहले होते थे, अब कहां! यह पहले होते थे, यह टालने का उपाय है। अब नहीं हो सकते, यह अपनी रक्षा की व्यवस्था है। कोई कहे कि फलां व्यक्ति संतत्व को उपलब्ध हो गया, तुम्हें हजार संदेह उठते हैं। और कोई आकर कहे कि फलां संत भ्रष्ट हो गया— अब यह तुम्हारा तर्क देखना मन में - संत तो तुमने कभी उसे न माना था, लेकिन भ्रष्ट तुम मान लेते हो। पहली तो बात अगर संत नहीं था तो भ्रष्ट कैसे हुआ ! तुम तभी उसको संत मानते हो जब भ्रष्ट होना पक्का हो जाता है। तब तुम कहते हो, देखो, वह संत भ्रष्ट हो गया। इस मजे को देखना । भ्रष्ट होने के पहले तुमने उसे कभी संत माना ही नहीं था, लेकिन जैसे ही पक्का चल गया तुम्हें पता - और पक्का ही चलता है जब पता - चलता है, तुम उसमें कोई कच्चापन लेते ही नहीं — कि भ्रष्ट हो गया, जिस दिन 195
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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