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________________ मृत्युबोध के बाद ही महोत्सव संभव तुम्हारी मालकियत है। सुख तुम्हारा स्वभाव है। सुख तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। तुम इसे खो रहे हो, यह तुम्हारी मर्जी। तुम इसे जरा ही भीतर की तरफ मोड़ो और पा लोगे। संसार से मत भागो, स्वयं में जागो। ये छोटी सी तीन कहानियां तुमसे कहता हूं। पहली अपने जिज्ञासु पुत्र कछ के निरंतर पूछने पर बृहस्पति ने कहा-वत्स, त्याग ही परम कल्याण का साधन है। तू त्याग का अवलंबन ले। किंतु सर्वस्व त्याग देने पर भी जब कछ को परमानंद का अनुभव न हुआ, तो वह फिर बृहस्पति के पास पहुंचा। देवगुरु कछ के सारे विभ्रम को समझ गए, सस्मित बोले-तात, त्याग का अर्थ वस्तु का त्याग नहीं, उस वस्तु-संबंधी ममत्व एवं अहंकार का त्याग है। जब तक जीवन है, वस्तु की अपेक्षा तो अनिवार्य है। अतः वस्तु त्याज्य नहीं है, त्याज्य है वस्तु की भोगवासना, उसकी संग्रह-लिप्सा। तुम वस्तुएं छोड़ने के पीछे मत पड़ो, तुम तो वस्तुएं संग्रह करने का भाव भर जाने दो। धन को छोड़ने की जरूरत नहीं है, धन धन है, ऐसी दृष्टि छोड़ देने की जरूरत है। और तुम अगर संन्यास भी इसलिए लेना चाहते हो कि सुख मिले, तो तुम संन्यास ले ही नहीं रहे। फिर तुम्हारा संन्यास भी संसार का ही विस्तार है। यह दूसरी कहानी पुराणों में कथा है देवशर्मा नाम के एक ब्राह्मण थे, और उसकी पत्नी थी सुधर्मी। देवशर्मा पुत्रविहीन थे। उन्होंने बहुत तपश्चर्या की, बहुत योग साधा, बहुत ध्यान किया, फलस्वरूप देवता उन पर प्रसन्न हुए; और जब देवता प्रगट हुआ तो देवशर्मा ने पुत्र मांगा। पुत्र पैदा हुआ, वरदान फला। लेकिन पुत्र अंधा था। मां-बाप बहुत दुखी हुए। बुढ़ापे में मिला भी बेटा तो अंधा। जीवनभर इसी बेटे के लिए प्रार्थनाएं की, पूजाएं की, तप किया, योग किया, जो भी कर सकते थे किया; तीर्थ गए, सब किया और मिला अंधा! पर अब तो कोई उपाय न था। . इस अंधे बेटे को बड़ा किया, गुरुकुल भेजा। कुछ थोड़ा-बहुत पढ़-लिखकर बेटा वापस लौटा। जब अंधा बेटा गुरुकुल से वापस आया, तो उसने अपने पिता से पूछा कि क्या आप अभी अंधे हैं? क्योंकि अंधे पिता के बिना अंधा पुत्र कैसे हो सकता है ? देवशर्मा तो बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि नहीं बेटे, मैं अंधा नहीं हूं, न तेरी मां अंधी है; हम आंख वाले हैं, मगर किसी कर्म का फल होगा कि हमें अंधा बेटा मिला। लेकिन बेटे ने कहा, नहीं, आप अंधे हैं और मेरी मां भी अंधी है। बाप ने पूछा, तेरा मतलब क्या? तो बेटे ने कहा, मेरा मतलब यह है कि जीवनभर कठिन तपश्चर्या करके मांगा भी तो पुत्र मांगा। अंधे हो। जीवनभर तपश्चर्या करके जब देवता प्रगट हुआ तो मांगा भी तो पुत्र मांगा, तुम अंधे हो। इसलिए तो मैं अंधा हुआ। तुम संन्यास से भी सुख ही मांगते हो-वही सुख जो संसार से मांगते थक गए 185
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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