________________
एस धम्मो सनंतनो
हो और नहीं मिला। संन्यास से शांति मांगो, सुख नहीं। शांति मिलती है, शांति की छाया की तरह सुख चला आता है। तुमने जगत में सुख मांगा अब तक, सुख की छाया की तरह अशांति मिलती है।
इस सूत्र को खयाल रखना, यह फिर एक विरोधाभास। सुख मांगो, अशांति मिलती है; शांति मांगो, सुख मिलता है।
तीसरी कहानी
सम्राट तैमूर लंगड़ा था। इसलिए इतिहास में तैमूर लंग के नाम से प्रसिद्ध है। एक बार एक अंधा गवैया उसके दरबार में उपस्थित हुआ, तैमूर लंग उसका गान सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और उसका नाम पूछा। दौलत, गवैए ने उत्तर दिया। दौलत! तैमूर लंग ने कहा, दौलत भी क्या अंधी होती है! सम्राट ने उसके अंधेपन पर चोट की। वह अंधा हंसने लगा और उसने कहा, यदि अंधी न होती तो क्या लंगड़े के घर आती?
मन तुम्हारा संसार में मांगते-मांगते थका नहीं, अभी मांग जारी रखोगे? अभी भिखारी ही बने रहोगे? अब भिखमंगापन छोड़ो! संन्यास तो बिना किसी आकांक्षा से फलित हो तो ही फलित होता है। संन्यास तो संसार की व्यर्थता को देखकर उमगे तो ही उमगता है। संन्यास के साथ किसी वासना का कोई संबंध नहीं। तुम यह कहो कि इसलिए संन्यास लेते हैं तो संन्यास चूक गए। तो यह संन्यास अंधा और लंगड़ा, इस संन्यास का कोई मूल्य नहीं।
तुम कहते हो कि संसार में सब करके देख लिया, इस करने में कुछ भी न पाया, अब अपने भीतर विराजते हैं। दौड़-दौड़कर देख लिया, अब विश्राम करते हैं। अब विराम करते हैं। इस विराम में अब कोई मांग नहीं है, क्योंकि मांग में तो दौड़ होती है, फिर दौड़ना पड़ेगा। इस विराम में कोई वासना नहीं है, सिर्फ वासना से मुक्ति है। और तब अचानक सुख की वर्षा हो जाती है। महासुख की। उस महासुख को हमने आनंद कहा है। इसीलिए आनंद कहा है कि सुख के विपरीत तो दुख होता है, आनंद के विपरीत कुछ भी नहीं होता। जहां सुख है, वहां दुख की संभावना है। आज सुख है, कल दुख हो जाएगा। लेकिन जहां आनंद है, वहां शाश्वत आनंद है। एस धम्मो सनंतनो।
आज इतना ही।
186