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________________ मृत्युबोध के बाद ही महोत्सव संभव बैलेंस क्या था? और तुम कहो कि बैंक बैलेंस था ही नहीं, बैंक में अपना खाता ही नहीं था, तो वह कहेंगे, छोड़ा ही नहीं कुछ, तो त्याग कैसे बड़ा हो सकता है! त्याग का बड़ा होना पहले तो इसी से तय होता है कि बैंक बैलेंस कितना था? तो सिर्फ राजाओं के बेटे ही तीर्थंकर और अवतार हमें मालूम पड़े। बाकी को हमने स्वीकार नहीं किया। अब कबीर हैं, दादू हैं, रैदास हैं, इनकी कौन फिकर करे! कुछ था ही नहीं, छोड़ने को कुछ था ही नहीं तो क्या छोड़ा। अहंकार के रास्ते सूक्ष्म हैं। फिर इसमें भी अहंकार काम करता है। जब जैन देखते हैं कि बौद्धों ने लिख दिए इतने घोड़े थे, तो उससे ज्यादा घोड़े बढ़ाकर अपने शास्त्र में लिख देते हैं। जब बौद्ध देखते हैं कि जैनियों ने ज्यादा घोड़े बता दिए, वे ज्यादा घोड़े दिखा देते हैं। क्योंकि इसमें भी अहंकार जुड़ जाता है कि मेरा गुरु और उसके पास घोड़े कम! यह हो ही नहीं सकता। मेरा गुरु! ___ मैं एक नगर में था। वहां तीन साधुओं में झगड़ा चल रहा था। एक साधु लिखते थे अपने को-एक सौ आठ श्री। एक सौ आठ श्री का मतलब होता है—एक सौ आठ बार श्री, तब नाम लेना चाहिए। श्री, श्री, श्री, श्री, ऐसा एक सौ आठ बार, फिर, अब उतना कहने में दिक्कत होगी इसलिए लिखते हैं—एक सौ आठ। दूसरे लिखने लगे-एक हजार आठ। अब लिखने में कोई अड़चन तो है ही नहीं। तीसरे बहुत चिंतित थे, वह मुझे मिलने आए थे। वह कहने लगे कि यह एक लिखता है एक सौ आठ, एक लिखता है एक हजार आठ, अब एक लाख आठ कभी किसी ने लिखा नहीं है, तो वह जरा शास्त्रीय नहीं है, तो वह पूछने लगे कि मैं क्या लिखू? - मैंने कहा कि तुम ऐसा करो कि-अनंत श्री। क्योंकि एक लाख लिखो, कोई एक करोड़ कर दे, इसमें रोक कौन सकता है! तुम अनंत श्री! जैसा छोटे बच्चे कहते हैं न कि तुमसे एक ज्यादा। तुम जो कहो, उससे एक ज्यादा। मामला खतम हो गया। तुम संख्या में पड़ो ही मत, नहीं तो कभी हार खाओगे, मात खाओगे। वह बोले कि बात बिलकुल जंचती है। तब से वह अनंत श्री हो गए। आदमी के अहंकार बड़े सूक्ष्म हैं। अहंकार के परोक्ष रूप हैं, प्रत्यक्ष रूप हैं। प्रत्यक्ष रूप तो बहुत कठिन नहीं हैं, दिखायी पड़ते हैं, परोक्ष रूप ज्यादा कठिन हैं। उनके प्रति सावधान होना। जब तुम कहते हो मेरा देश सबसे महान, तब तुम असल में यह कहते हो कि होना ही चाहिए, क्योंकि मैं इस देश में पैदा हुआ। नहीं तो ऐसा हो कैसे सकता है कि मेरा देश और महान न हो! तुम कह तो यही रहे कि मैं महान, लेकिन परोक्षरूप से कह रहे, सीधा नहीं कह रहे। कोई कहता है हिंदू-धर्म सबसे महान, कोई कहता है जैन-धर्म सबसे महान। क्यों? क्योंकि जैन-धर्म महान हो तो ही तुम महान, हिंदू-धर्म महान हो तो तुम महान। कोई कहता है कुरान सबसे ऊंची किताब, कोई कहता है वेद सबसे ऊंची किताब-जो तुम्हारी किताब है वह ऊंची होनी चाहिए। 179
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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