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________________ एस धम्मो सनंतनो तो उसने कहा- पुनर्मूषको भव । फिर से चूहा हो जा। चूहा फिर से चूहा हो गया। इस कहानी में जितनी आसानी से चूहा सिंह से चूहा हो गया, इतनी आसानी से अहंकार का चूहा पुनर्मूषको भव कहने से नहीं होता। पहले हम उसे बड़ा करते हैं। हम फैलाते चले जाते हैं। हम दूसरों के मुकाबले में उसको लड़ाते चले जाते हैं, बिल्ला बनाया, कुत्ते के मुकाबले में चीता बनाया, चीते के मुकाबले में सिंह बनाया - हम बनाते चले गए—एक दिन घड़ी आती है कि वह इतना बड़ा हो जाता है कि उसके बोझ में हम ही दब जाते हैं । हमारी छाती पर पत्थर की तरह पड़ जाता है । फिर हटाना इतना आसान नहीं है जितना इस कहानी में है । फिर तुम लाख चिल्लाते रहो — पुनर्मूषको भव, वह कहेगा-चुप रहो, शांत रहो, बकवास मत करो। तुमने देखा न तुम्हारा मन अक्सर - तुम मन के साथ प्रयोग करके देख सकते हो - तुम सोना चाहते हो और मन अपनी बकवास में लगा है। तुम कहते हो, भाई, चुप हो जाओ; वह कहता है, तुम चुप रहो ! तुम्हारा मन और तुमसे ही कहता है, तुम चुप रहो ! तुम कहते हो, मुझे सोना है। वह कहता है, फिजूल की बातें न करो, अभी हम अपने काम में लगे हैं। तुम्हारा मन और तुमसे ही टें! अब इतना आसान नहीं। इसको तुमने ही पाला है। इसको तुमने ही बड़ा किया है। इसको तुमने ही सम्हाला है। इसको तुमने ही ऊर्जा दी है। यह तुम्हारी ही ऊर्जा के बल पर आज अकड़ रहा है। लेकिन धीरे-धीरे तुम इससे दबते गए, धीरे-धीरे तुम छोटे होते गए और यह बड़ा होता गया । तुमने जिस शून्य को दबाने के लिए इसे खड़ा किया था, वह तुम हो । शून्य हमारा स्वभाव है, शून्यता हमारा गुणधर्म है। उस शून्य को दबाने के लिए अहंकार खड़ा किया, अब यह अहंकार खड़ा हो गया, अब यह तुम्हें दबा बैठा। - पहले तुम बड़े खुश हुए कि चलो इसके सहारे दूसरों को हमारा शून्य नहीं दिखायी पड़ता, दूसरों के सामने अकड़कर चल लेते हैं, दुनिया में ख्याति फैल रही है, नाम हो रहा है । फिर यह बहुत अकड़ गया, फिर इसने तुम्हें जोर से दबा लिया, अब तुम घबड़ाते हो कि इससे कैसे छूटें! यह तो गर्दन दबाए दे रहा है। लेकिन अब इतना आसान नहीं। एक बार तुमने इसके हाथ में बागडोर दे दी, तो लेने में समय लगेगा। कभी-कभी जीवनभर लग जाता है। कभी-कभी अनेक जीवन लग जाते हैं। जब जाग जाओ तभी से दो काम शुरू कर दो। एक, कि अब इसे और शक्ति मत दो। दूसरा, कि अपने शून्यभाव का धीरे-धीरे स्मरण करो। इस भाव में रमो कि मैं ना - कुछ हूं। पहले तो बहुत कष्ट होगा- मैं ना - कुछ ! यही तो जिंदगीभर मानना नहीं चाहा। दुनिया तो यही कह रही थी कि तुम ना कुछ हो, लेकिन तुमने इनकार किया। दुनिया तो मानना ही चाहती थी कि तुम ना - कुछ हो, मगर तुम न माने। अब अपने से मानने में बड़ी अड़चन होगी । - इसी को तो संन्यास का सूत्र समझना – मैं ना कुछ। मैं एक शून्य मात्र। बांस 174
SR No.002387
Book TitleDhammapada 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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