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एस धम्मो सनंतनो पैदा न हो जाए तुम उन-उन स्थानों से भागते रहो जहां-जहां रस पैदा हो सकता है. तो इससे भी कुछ मुक्ति नहीं होती। संयम का ठीक-ठीक अर्थ तो होता है-इस रस को परिशुद्ध करना; इस रस को अविकृत रखना। रस को विकृत करने की परिस्थितियों में ही तो सिद्ध होगा कि रस विकृत होता है, नहीं होता? अविकृत रहता है, नहीं रहता? जहां विकार खड़ा हो, वहां तुम्हारा रस परिशुद्ध भीतर नाचता रहे, विकार और रस में मिश्रण न हो, वहीं तो कसौटी है।
विकृति की आशंका से रस-विमुख होना ऐसा ही होगा जैसे कोई गृहिणी भिखारियों के भय से घर में भोजन पकाना बंद कर दे। अथवा कोई कृषक भेड़-बकरियों के भय से खेती करना ही छोड़ बैठे। यह संयम नहीं, पलायन है। यह आत्मघात का दूसरा रूप है। आत्मा को रस-वर्जित बनाने का प्रयत्न ऐसा ही भ्रमपूर्ण है जैसे जल को तरलता से अथवा अग्नि को ऊष्मा से मुक्त करने की चेष्टा। इस भ्रम में मत फंसो। __ यह बड़ी अपूर्व घटना है। और पतंजलि के मुंह से तो और भी अपूर्व है। कृष्ण ने कही होती तो ठीक था, समझ में आ जाती बात, लेकिन पतंजलि यह कहते हैं! जिन्होंने पतंजलि का योगसूत्र ही पढ़ा है, वे तो चौंकेंगे। क्योंकि पतंजलि के योगसूत्र से तो ऐसी भ्रांति पैदा होती लगती है कि पतंजलि दमन के ही पक्ष में हैं। । __कोई ज्ञानी दमन के पक्ष में कभी नहीं रहा। अगर तुम्हें लगता हो, रहा, तो तुम्हारी समझ में कहीं भूल हो गयी है। ज्ञानी मुक्ति के पक्ष में है, दमन के पक्ष में नहीं। फिर कृष्ण हों कि पतंजलि, मुक्त होना है, दमित नहीं। जो दमित हो गया, वह तो बड़े कारागृह में पड़ गया। तुम दबा लो अपनी वासना को, बैठी रहेगी भीतर, सुलगती रहेगी, उमगती रहेगी, धीरे-धीरे भीतर उपद्रव खड़ा करती रहेगी, एक न एक दिन विस्फोट होगा। जब विस्फोट होगा तो तुम विक्षिप्त हो जाओगे। विमुक्त होना तो दूर, विक्षिप्तता हाथ लगेगी।
ज्ञानियों ने यही कहा है-भागो मत, जो भीतर है, उसके प्रति जागो, उसके प्रति ध्यान को उठाओ, साक्षी बनो, देखो कि मेरे भीतर काम है, कि क्रोध है, कि लोभ है। और इस देखने में संसार बड़ा सहयोगी है। ___ मैंने सुना है, एक आदमी हिमालय चला गया। क्रोधी था बहुत, क्रोध के कारण रोज-रोज झंझटें होती थीं; अंततः उसने सोचा कि संसार में बड़ी झंझट होती है—यह तो नहीं सोचा कि क्रोध में झंझट है-सोचा संसार में बड़ी झंझट है। झगड़ा-झांसा खड़ा हो जाता है। छोड़-छाड़कर जंगल चला गया, पहाड़ पर बैठ गया। तीस साल पहाड़ पर था। स्वभावतः, न किसी ने अपमान किया, न किसी से झगड़ा हआ, न बस स्टैंड पर खड़ा हुआ टिकट लेने, न सिनेमा घर के सामने भीड़ में धक्का-मुक्की हुई, कोई सवाल ही नहीं था, शांत हो गया।
तीस साल की लंबी साधना के बाद उसे लगा कि अब तो क्रोध बचा ही नहीं,
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