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मृत्युबोध के बाद ही महोत्सव संभव
जब शंका हो जाए तो फिर कैसे लगे? श्रद्धा में ही मन लगता है, शंका में तो दूरी हो गयी। उस दिन से गुरु से नाता टूट गया। रहा, अब भी रहा गुरु के पास, अब भी उठता था, चरण भी छूता था, आदर भी देता था, मगर भीतर अड़चन हो गयी। ____ अंत में एक दिन जब महर्षि चित्तवृत्ति-निरोध के साधनों पर बोल रहे थे, तो चैत्र ने यह प्रासंगिक प्रश्न किया-भगवन, क्या नृत्य-गीत और रस-रंग भी चित्तवृत्ति-निरोध में सहायक हैं? पारदर्शी पतंजलि मुस्कुराए और बोले-चैत्र, वास्तव में तुम्हारा प्रश्न तो यह है कि क्या उस रात मेरा सम्राट के नृत्य-उत्सव में सम्मिलित होना संयम-व्रत के विरुद्ध नहीं था?
वर्ष बीत गए थे उस बात को हुए तो, लेकिन दिखता रहा होगा पतंजलि को कि इसके मन में बात चुभ गयी है, चुभ गयी है, चुभ गयी है, राह देखता, प्रतीक्षा करता, किसी अवसर पर प्रश्न को खड़ा करेगा। अप्रासंगिक भी नहीं होना चाहिए, नहीं तो गुरु सोचेंगे कि यह मैंने संदेह किया।
शायद वर्ष के बीतने के बाद जब फिर कभी पतंजलि बोलते होंगे चित्तवृत्तिनिरोध पर, तो उसने कहा कि महाराज, क्या नृत्य इत्यादि में सम्मिलित होना भी चित्तवृत्ति के निरोध में सहायक होता है? सोचता होगा, वर्ष बीत गए, अब तो महर्षि भूल भी गए होंगे उस बात को। और उनको तो याद भी कैसे होगा, मैंने तो कभी कहा भी नहीं कि शंका-शूल मेरी छाती में चुभा है और मेरी श्रद्धा तुम पर डगमगा गयी है। मैंने तुम्हें वहां देखा है, वेश्याएं नृत्य करती थीं और शराब के प्याले चलते थे–राजदरबार था-वहां आप क्या कर रहे थे! आधी रात तक वहां आपको बैठने की जरूरत क्या थी? ये सब बातें थीं, कहना तो ऐसे ही चाहता था, लेकिन इतनी हिम्मत कभी जुटा न पाया। __ लेकिन पारदर्शी पतंजलि मुस्कुराए और बोले : चैत्र, वास्तव में तुम्हारा असली प्रश्न तो यह है कि क्या उस रात मेरा सम्राट के नृत्य-उत्सव में सम्मिलित होना संयम-व्रत के विरुद्ध नहीं था? संयम के सच्चे अर्थ को तुम समझे नहीं। सुनो, सौम्य! आत्मा का स्वरूप है रस-रसो वैसः—उस रस को परिशुद्ध और अविकृत रखना ही संयम है। विकृति की आशंका से रस-विमुख होना ऐसा ही है जैसे कोई गृहिणी भिखारियों के भय से घर में भोजन पकाना ही बंद कर दे।
बड़ी अनूठी बात कही। भिखारी आते हैं, इस भय से घर में भोजन ही न बनाओ-न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। मगर यह तो भिखारियों के पीछे खुद भी मरे। भोजन न पका तो खुद भी मरे।
तो पतंजलि ने कहा, रस तो जीवन का स्वभाव है, रसो वै सः, यह तो परमात्मा का स्वभाव है रस, उत्सव तो परमात्मा का होने का ढंग है, यह तो आत्मा की आंतरिक दशा है-रस। इस रस से विमुख होकर, इस रस को दबाकर, इस रस को विकृत करके कोई व्यक्ति मुक्त नहीं होता। और फिर इस डर से कि कहीं रस
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